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________________ २६ जैनेन्द्र की कहानियां [द्वितीय भाग] कहा कि मैंने नहीं ली, नहीं ली, नहीं ली। यह कहकर वह रोने-को हो आया, पर रोया नहीं । आँखों में आँसू रोक लिये। ___ उस वक्त मुझे प्रतीत हुआ उग्रता दोष का लक्षण है। मैंने कहा देखो बेटा, डरो नहीं, अच्छा जाओ। ढूँढो, शायद कहीं पड़ी हुई वह पाजेब मिल जाय । मिल जायगी तो हम तुम्हें इनाम देंगे। वह चला गया और दूसरे कमरे में जाकर पहले तो एक कोने में खड़ा हो गया । कुछ देर चुपचाप खड़े रहकर वह फिर यहाँ-वहाँ पाजेब की तलाश में लग गया । श्रीमती आकर बोली आशू से तुमने पूछताछ लिया ? क्या ख्याल है ? __ मैंने कहा कि सन्देह तो मुझे होता है। नौकर का काम तो यह है नहीं ! श्रीमती ने कहा कि नहीं जी, आशू भला क्यों लेगा ? ___ मैं कुछ बोला नहीं। मेरा मन जाने कैसे गम्भीर प्रेम के भाव से आशुतोष के प्रति उमड़ रहा था । मुझे ऐसा मालूम होता था कि ठीक इस समय आशुतोष को हमें अपनी सहानुभूति से वंचित नहीं करना चाहिए । बल्कि कुछ अतिरिक्त स्नेह इस समय बालक को मिलना चाहिए । मुझे यह एक भारी दुर्घटना मालूम होती थी। मालूम होता था कि अगर आशुतोष ने चोरी की है तो उसका इतना दोष नहीं है, बल्कि यह हमारे ऊपर बड़ा भारी इल्वाम है। बच्चे में चोरी की आदत भयावह हो सकती है। लेकिन बच्चे के लिए बैसी लाचारी उपस्थित हो आई, यह और भी कहीं भयावह है । यह हमारी आलोचना है। हम उस चोरी से बरी नहीं हो सकते।
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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