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________________ जनता में १७३ बच्चे को हवा करने लगा। एक बोला, “भाई, खिड़की बन्द करो, खिड़की ।” झटपट दोनों तीनों चारों खिड़कियाँ बन्द कर दी गईं। दूसरे ने कहा, “मैं बताऊँ एक बात । यह हमारे किशन जी हैं किशन जी !" । "अबे हट! तुझे कुछ पता भी है। बता, पैर में पैंजनियाँ कहाँ हैं ? नहीं रामजी हैं, रामजी ।" "तो क्या हुआ ?” उसने कहा, "अगले स्टेशन पर पैंजनियाँ मिल न जायेंगी । हम तो किशन जी बनायेंगे । और मोर के पंख वहाँ मिलते नहीं हैं, चुनार स्टेशन पर बस पूरे किशन हो गये कि नहीं ?" "अबे बदमाश, नाक तोड़ेगा क्या ? अच्छा किशन जी है जो नाक तोड़ दे रहा है ।" कहते हुए पहले आदमी ने बालक को और ऊपर किया और अपने माथे पर बिठा लिया । रसेल इस वक्त मुझ से छूट गया, कारण, सामने इन्सान मिला हुआ था । बच्चा ऐन मेरी आँखों की सीध में था । दसों की आँखें उस पर थीं । यानी एक मेरी भी । जो बालक को ऊपर करके सिर पर लिये था उसे स्वयं बच्चे को आँखों से देखने की आवश्यकता न थी । अपने समूचेपन से वह तो उसे देख रहा था । देखने में दूरी है । वह उसे पाये हुए थे । अब हो सकता है कि यथार्थ कृष्ण स्थितप्रज्ञ हों अथवा कि न भी हों । लेकिन यह नकली कृष्ण यथार्थ स्थितप्रज्ञ निकले । वह उसी तरह विस्मित थे और न दुःखी न सुखी । 1 “अबे श्र उल्लू ! जो ऊपर से उसने नहला दिया तो - " “तो उल्लू यह खुद हुआ कि मैं ? नहा के भाई मैं तो ठण्डा हो
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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