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________________ १७२ जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग ] हैं । कोई मुँह को तिरछा करता है, कोई गोल । कोई आँख फेरता है तो कोई जीभ को ही बाहर निकाल कर विविध भंगिमा से उसे नचाता है । सब की कोशिश है कि बालक और सब को छोड़ कर उस एक पर रीझे । उसे जितनी खुशी मिले सिर्फ मुझ से मिले । सब के चेहरे विमल आनन्द से खिल आये हैं और दस-के-दसों का मन जैसे उसकी नन्हीं मुट्ठी में बन्द है । 1 "अबे, हट बे । अपनी शक्ल तो देख, तेरे पास आयगा वह ?" 1 सुनने वाले ने झट अँगोछा खींच करके अपना मुँह पोंछ ser | बोला, 'जा । वहीं बैठ । ले अब तो मुँह पोंछ लिया ।" कहकर उसने मुँह पोंछा, अंटी में से खींच कर दर्पण निकाल कर देखा और फिर बच्चे की तरफ दोनों हाथों को बढ़ाया। बालक ने भी इधर से अनायास बाँह फैला दी । उस समय क्या हुआ ? वह व्यक्ति उठा ! बेधड़क हाथ बढ़ाकर माँ के कन्धे पर से उसने बालक को खींच लिया। मेरी तरफ बालक की पीठ थी और माता का मुँह, यद्यपि उस पर घूँघट था, मुझ से एकदम अदृश्य न था । मारवाड़ी बन्धु की वह पुत्रवधू रही होंगी । अनजाने मैले, बेडौल हाथ उसके कन्धे पर दबाव देकर गोद में थमे उसके बालक को छीन ले जाते हैं । लेकिन माँ उल्टे कृतज्ञ और प्रसन्न हैं । मुँह ऊपर करके पहले तो उस आदमी ने बालक को अपनी नाक की नोक पर बिठाना चाहा। ऐसे कि दोनों पैरों के तलुवे उसकी नाक पर ही पूरे पक्के जम जायँ । कुर्ते वाले ने कहा, “अबे देखता नहीं है, गरमी लग रही है, गरमी !” कहकर कुर्ते के पल्ले से वह
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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