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________________ दिल्ली में १५३ शायद मौत के हाथों में से । मालूम नहीं किसका है।" तब प्रमोद ने सब हाल कह सुनाया । करुणा घबड़ाई"फिर ?' "फिर क्या ? इसे पालो।" "पालँ ? कौन जाने किसका हो !" "किसी का भी हो, है तो बच्चा । अभी तो कहती थीं, कैसा अच्छा लगता है।" "अच्छा लगता है तो ढेढ़-चमार किसी का भी बालक ले लें ?" "ले भी लें तो फिर क्या होगा ? फिर यह तो किसी का भी नहीं-धरती माता का है ।" । मातृत्व किस स्त्री में नहीं है ? पर, इस पर धर्म का और जड़ता का आवरण चढ़ जाता है । करुणा की इन आपत्तियों में से उसका मातृत्व झाँक-झाँककर देख रहा है-कैसा छौना-सा है, कैसा प्यारा ! प्रमोद का कहना जहाँ शिथिल पड़ा, और यह धर्म जरा पिघला कि वह झट से बच्चे को छाती से लगाकर सुला लेगी। बोली, “है तो लेकिन ......" लेकिन के बाद तुरन्त कहने को शब्दों की कमी हो गई। "लेकिन, यह तुम्हारे पासरे श्रा पड़ा है, करुणा । पालोगी तो जी जायगा, नहीं तो वहीं कहीं फिर छोड़ आना पड़ेगा।" ___ करुणा पालेगी क्यों नहीं ? जरूर पालेगी। पर प्रमोद की बात ऐसी जल्दी से नहीं मान लेगी। "कैसे करके पालँगी ? लोग क्या कहेंगे?" "लोग जो भावेगा, कहेंगे । जैसा उनमें शऊर होगा, वैसा ही
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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