SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५२ जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग] प्रमोद झुका-हैं, एक कागज है-सिरा उसका तकिए के नीचे दबा है-लिखा है-"लो, ले लो, भगवान् सब देखता है।" प्रमोद ने बच्चे को लिया, दुबका लिया, टोकरी वहीं छोड़ी और लौट चला। ___अभी मुड़कर चला ही कि ये फूल उस पर किसने बरसा दिए ? ऊपर देखा-कोई नहीं ! रास्ते में एक सिपाही की शक की निगाह पड़ गई। इनका चलना ही ऐसा था कि शक न हो, तो अचरज है। टोका गयाइन्होंने झिड़कियाँ सुना दी। उसने धमकी से काम लेना चाहा । इन्होंने सुना अनसुना कर दिया। तब वह तैश खाता हुआ और को लेने चला। भरोसा था, धमकी के बाद, यह भाग न सकेगा। लेकिन प्रमोद क्यों ठहरता ? घर पाया। "लो।" "कहाँ से ले पाए ?" "पड़ा मिल गया।" "नहीं जी! यह सदा ठठोली ! कुछ बात हुई ?-ठीक बताओ।" "कहता तो हूँ-पड़ा मिल गया।" "नहीं-नहीं-नहीं, सच बताओ, किसका है ? कैसा अच्छा है ! कौन माँ हैं जिसने ऐसा नहा-सा बच्चा दे दिया ? सच बताओ, किसका है ?" "सीधा परमात्मा के हाथों में से छीनकर लिये आ रहा हूँ
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy