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________________ तमाशा १४३ जैसे बालक का कलेजा ही खिंचकर निकला चला आ रहा हो। एक साँस में खाँसते-खाँसते मिनट से भी ऊपर हो जाता, और गले का का साफ़ होकर न देता। एक बार बालक को खाँसते हुए पूरे दो मिनट हो गये प्राणपण से जोर लगा कर खाँसता था; अंतड़ियाँ जैसे उखड़ी चली आ रही हैं, सिर पटक-पटक कर दे मार रहा है, किकिया रहा है, अपनी छोटी-सी जान का पूरा बल लगा कर खाँसता है; पर क्या अटका है कमबख्त कहीं कि निकलता नहीं । इस दुस्सह व्यथा को देखती हुई सुनयना पास खड़ी हो रही है, और विनोद का जी जाने कैसा हो रहा है। जैसे सूखे कपड़े की तरह ऐंठा जा रहा हो । पूरे तीन मिनट में, मानो तीन युग में आखिर एक प्रबल खाँसी में वह गले में जमा हुआ पदार्थ कुछ उखड़ कर आया, और, बालक एक क्षीण चिचिपाहट छोड़ कर, अवश, श्रांत मृतप्राय होकर कन्धे पर मूर्छित होकर पड़ रहा । उस समय रात के बारह बजे थे । विनोद ने सुनिया के हाथ में बालक को थमाते हुए कहा, “इसे लेना। मैं अभी डाक्टर सरकार को ले आता हूँ।" सुनयना ने कहा, "बच्चे को छोड़कर अभी कहाँ जाते हो। दिन होते ही चले जाना।" यह निरर्थक बात जैसे उसके कानों तक भी नहीं पहुंची। वह चला गया। ___उसके बाद शनिवार की रात तक कितने डाक्टर, वैद्य और हकीम आये, गिनती नहीं । कितना रुपया खर्च हुआ, इसकी और भी गिनती नहीं । फीस वाले डाक्टरों आदि को तो मिला ही था, कुछ बिन बुलाये जान-पहचान के लोग आ गये थे या ऐसे लोग औरों को बुला लाये थे, उनको भी पूरा पारिश्रमिक मिला था।
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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