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________________ १४२ जैनेन्द्र की कहानियां [द्वितीय भाग] और सबसे बड़ी बात तो मन की है । मन हमेशा ठीक रखो, खुश रखो, समझती रहो, बच्चा अच्छा हुआ क्या, अच्छा ही है, करतेकरते बच्चा आप अच्छा हो जायगा। सोचोगी, हाय, बीमार है, बीमार है, तो इस दुश्चिन्ता का परिणाम बालक के स्वास्थ्य पर अवश्य पड़ेगा । सब से महत्त्व की यह बात है, समझी ?" ___ समझी यह कि कुछ नहीं समझी । और सब एतिहात खूब ही अच्छी तरह से रखेगी। पर मन को बोध सहज नहीं होता। वह तर्क, समझ और यत्न के मुताबिक नहीं चलता। जब वह रोता है तो उसे हँसाकर कैसे दिखाया जाय । उसने कहा, "अच्छी बात है। जैसा कहोगे, करूँगी। और कौन-सा बहुत अफसोस करती हूँ। पर किसी को दिखा देते, तो तसल्ली हो जाती । तुम जानो, डाक्टर सब यों ही बे बात के नहीं हो गये । कुछ तो हम-तुमसे ज्यादे जानते ही होंगे। सारी दुनिया बेवकूफ नहीं है, जो उन्हें पूछती है, और लोग हजारों खर्च करके और बीसियों साल लगाकर डाक्टर बनते हैं।" विनोद ने कहा, "यह तो ठीक है, सुनिया, पर तुम जानती नहीं । दुनिया बेवकूफ ही है । मैं अब भी कहता हूँ, डाक्टर का नाम मन में भी मत लेना।" सुनयना 'तुम जानो' कहकर चुप होकर बैठ गई । विनोद सोते हुए लल्लू के पास पहुँच और बैठकर दो-जेब-भरे नोट्स का निरीक्षण करने लगे। लेकिन ठीक रात के बारह बजे विनोद झटपट हार गया। बच्चा रो रहा था, और बड़ा बेचैन था । कन्धे से लगाये हुए, गा-गाकर डोलता-डोलता विनोद अत्यन्त चेष्टा करने पर भी उसे बहला न पाता था । खाँसी ऐसी उठती थी कि विनोद को लगता
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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