SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रपना-अपना भाग्य '१०७ "श्रजी, ये पहाड़ी बड़े शैतान होते हैं। बच्चे-बच्चे में गुन छिपे रहते हैं। आप भी क्या अजीब हैं-उठा लाये कहीं से-'लो जी, यह नौकर लो।" “मानिए तो, यह लड़का अच्छा निकलेगा।" "श्राप भी...जी, बस खूब हैं। ऐरे-गैरे को नौकर बना लिया जाय और अगले दिन वह न जाने क्या-क्या लेकर चम्पत हो जाय ।" "आप मानते ही नहीं, मैं क्या करूँ !" "मानें क्या खाक ?-आप भी जी अच्छा मजाक करते हैं। अच्छा अब हम सोने जाते हैं।" __ और वह चार रुपये रोज के किराये वाले कमरे में सजी मसहरी पर लोने झटपट चले गये। :४: वकील साहब के चले जाने पर होटल के बाहर आकर मित्र ने अपनी जेब में हाथ डालकर कुछ टटोला । पर झट कुछ निराश भाव से हाथ बाहर कर वे मेरी ओर देखने लगे। "क्या है ?" मैंने पूछा। "इसे खाने के लिए कुछ देना चाहता था" अँग्रेजी में मित्र ने कहा, "मगर दस-दस के नोट हैं।" "नोट ही शायद मेरे पास हैं; देखू ?" .. सचमुच मेरी जेब में भी नोट ही थे। हम फिर अंग्रेजी बोलने लगे। लड़के के दाँत बीच-बीच में कटकटा उठाते थे। कड़ाके की सर्दी थी। मित्र ने पूछा, "तब ?"
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy