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________________ १०६ जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग ] " “ १५ कोस दूर गाँव में ।" " तू भाग आया ?" "हाँ ।" "क्यों ?" " मेरे कई छोटे भाई-बहन हैं, सो भाग आया । वहाँ काम नहीं, रोटी नहीं। बाप भूखा रहता था और मारता था। माँ भूखी रहती थी और रोती थी । सो भाग आया । एक साथी और था । उसी गाँव का था, मुझसे बड़ा । दोनों साथ यहाँ आये । वह अब नहीं है ।" - "कहाँ गया ?” " मर गया ।" इस जरा-सी उम्र में ही इसकी मौत से पहचान हो गई ! मुझे अचरज हुआ, दर्द हुआ, पूछा, "मर गया ?” ?" “हाँ, साहब ने मारा, मर गया ।" " अच्छा हमारे साथ चल ।” वह साथ चल दिया । लौटकर हम वकील दोस्तों के होटल में पहुँचे । " वकील साहब !” वकील लोग होटल के ऊपर के कमरे से उतरकर आये । काश्मीरी दोशाला लपेटे थे, मोजे चढ़े पैरों में चप्पल थी । स्वर में हल्की-सी ॐ झलाहट थी, कुछ लापर्वाही थी । "श्रो हो, फिर आप ! कहिए ?" " आपको नौकर की जरूरत थी न ? – देखिए, यह लड़का है ।" “कहाँ से लाये ? — इसे आप जानते हैं ?" " जानता हूँ - यह बेईमान नहीं हो सकता । "
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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