SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग ] मैंने देखा - कुहरे की सफ़ेदी में कुछ ही हाथ दूर से एक कालीसी मूरत हमारी तरफ़ बढ़ी आ रही थी। मैंने कहा, "होगा कोई । " तीन गज दूरी से दीख पड़ा, एक लड़का सिर के बड़े-बड़े बालों को खुजलाता हुआ चला आ रहा है। नंगे पैर है, नंगे सिर । एक मैली-सी कमीज़ लटकाये है । पैर उसके न जाने कहाँ पड़ रहे थे, और वह न जाने कहाँ जा रहा है-कहाँ जाना चाहता है ! उसके क़दमों में जैसे कोई न अगला है, न पिछला है, न दायाँ है, न बायाँ है । १०४ पास की चुंगी की लालटैन के छोटे से प्रकाश-वृत्त में देखा - कोई दस बरस का होगा । गोरे रंग का है, पर मैल से काला पड़ गया है । आँखें अच्छी बड़ी पर सूनी हैं । माथा जैसे अभी से खा गया है । वह हमें न देख पाया । वह जैसे कुछ भी नहीं देख रहा था । नीचे की धरती, न ऊपर चारों तरफ़ फैला हुआ कुहरा, न सामने का तालाब और न बाक़ी दुनिया । वह बस अपने विकट वर्तमान को देख रहा था । मित्र ने आवाज दी- " ए !" उसने जैसे जागकर देखा और पास आ गया । " तू कहाँ जा रहा है रे ?" उसने अपनी सूनी आँखें फाड़ दीं। " दुनिया सो गई, तू ही क्यों घूम रहा है ?” बालक मौन-मूक, फिर भी बोलता हुआ चेहरा लेकर खड़ा रहा । “कहाँ सोयेगा ?" "यहीं कहीं ।"
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy