SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपना-अपना भाग्य हम अपने-अपने होटलों के लिए चल दिये । रास्ते में दो मित्रों का होटल मिला। दोनों वकील मित्र छुट्टी लेकर चले गये । हम दोनों आगे बढ़े। हमारा होटल आगे था। ताल के किनारे-किनारे हम चले जा रहे थे । हमारे ओवरकोट तर हो गये थे। बारिश नहीं मालूम होती थी, पर वहाँ तो ऊपरनीचे हवा के कण-कण में बारिश थी। सर्दी इतनी थी कि सोचा, कोट पर एक कम्बल और होता तो अच्छा होता। रास्ते में ताल के बिल्कुल किनारे एक बेंच पड़ी थी। मैं जी में बेचैन हो रहा था । झटपट होटल पहुँचकर, इन भीगे कपड़ों से छुट्टी पा, गरम बिस्तर में छिपकर सो रहना चाहता था। पर साथ के मित्र की सनक कब उठेगी और कब थमेगी-इसका क्या ठिकाना है ! और वह कैसी क्या होगी इसका भी कुछ अन्दाज है ! उन्होंने कहा, "आओ, जरा यहाँ बैठे।" । हम उस चूते कुहरे में रात के ठीक एक बजे, तालाब के किनारे की उस भीगी, बर्फीली ठण्डी हो रही लोहे की बेंचपर बैठ गये । ५-१०-१५ मिनट हो गये। मित्र के उठने का इरादा न मालूम हुआ। मैंने खिमला कर कहा "चलिए भी..." हाथ पकड़ कर जरा बैठने के लिए जब इस जोर से बैठा लिया गया, तो और चारा न रहा-लाचार बैठ रहना पड़ा। सनक से छुटकारा आसान न था, और यह जरा बैठना भी जरा न था। चुप-चुप बैठे तंग हो रहा था कि मित्र अचानक बोले"देखो, वह क्या है ?"
SR No.010355
Book TitleJainendra Kahani 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy