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________________ परिच्छेद-३ जैनेन्द्र और धर्म जैनेन्द्र की धार्मिक दृष्टि जेनेन्द्र का जीवन अध्यात्म और भौतिकता का समुच्चय है । भौतिकता यदि शरीर है, तो अध्यात्म उसकी आत्मा है । दोनो का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध हे । धर्म का अस्तित्व जीवन के स्वीकार्य मे ही सम्भव हे, और जीवन की सार्थकता धर्मरत होने मे है । जैनेन्द्र का साहित्य उनके व्यक्तिगत अनुभव का ही प्रतिनिधित्व करता है। उनका धार्मिक-बोध किसी मत या वाद से प्राबद्ध नही है । उन्होंने वेद, पुराण, उपनिषद् आदि धार्मिक ग्रन्थो के गभीर अध्ययन का कष्ट नही किया है, किन्तु धर्म का शाश्वत रूप जो कि आदिकाल से विश्व के सभी धर्मो म प्राप्त होता है, उनके साहित्य मे सहज ही देखने को मिलता है । उन्होने धर्म को ज्ञान से नहीं, वरन् अनुभव से प्राप्त किया है । उनका धर्म मानव-धर्म है। धर्म के इस व्यापक रूप के अन्तर्गत जीवन के विविध अग समाविष्ट हो जाते है। उनके साहित्य मे धर्म का अस्तित्व उसी प्रकार अलक्ष्य है, जैसे लकडी मे अग्नि । जैन दर्शन ___ जैनेन्द्र का साहित्य उनके युग की परिस्थितियो और उनके जन्मजात सरकारी का ही परिणाम है । यद्यपि वे स्वय को समस्त बन्धनो (परिस्थितिगत) मे मुवत' मानते है, किन्तु सामान्य दृष्टि से यह सम्भव नही हो सकता कि व्यक्ति नितान्त निरपेक्ष हो जाय । मनुष्य का जीवन और उसके विचार नितान्त
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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