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________________ ८४ जैनेन्द का जीवन-दर्शन लगती है। अथ-प्रवाह ही मानो भक्ति की वह पराकाष्ठा है जहा पारितक अपनत्व को भूतकर ईश्वर की अनुभूति मे ही रम जाता है। उनके हदय में बस एक ही उच्छवास बार-बार उठता है कि 'हे अज्ञात, त् ही तू ही ।' भावना सदा ही अम्त को मुत रूप प्रदान करके स्वीकार गा लेती हे । उनकी दग्टि में एकमात्र वही है । (ईश्वर) जनेन्द्र के गनगार ' न जानना है कि मानव-प्राणी के लिए एक अकेला सत्य अनुभव बही ' । यद की है। शायद नही, सचमुच वही है । जीवन के पास उससे बडी गाना कोई गरी नही है, कोई दूसरी हो नही सकती है।' ईश्वर भाग्यविधाता जैनेन्द्र के साहित्य मे ईश्वर का चाहे जो स्वरूप भी हो, किन्तु उसके अस्तित्व पोर उसकी महत्ता प्रतिपल उनके हृदय में बनी ही सनी : । जनेन्द्र के अनुमार 'भाग्य विधाता का ही दूसरा नाम है।'' जैनेन्द सातिग मे भाग्य के समक्ष नतमस्तक हुआ व्यक्ति अपरोक्ष मप मे वर को माता को ही स्वीकार करता है। १ उस अज्ञात के तट पर खडे होकर जी होता है, हम उसके अनन्त गर्भ की नीलिमा मे पाखे फाड-फाडकर कुछ देखने की स्पर्धा म अधे बया बन क्यो नही। हम प्राख मदकर घूटने प्रा बैठे, विवशता के दो प्राग दर जाने दे और गद्गद् कण्ठ के गुहार दे, 'हे अज्ञात, तू ही है । हम मन्त्र और हमारा समस्त ज्ञात तेरे गर्भ मे है, और तू उरासे परे है, नाता है। तू ज्ञात नही है-- - इसमे तू ही है, तू ही सत्य है । तुझमे नेरी शरण में है।' जैनेन्द्रकुमार काश्मीर की वह यात्रा', दिल्ली, १६५८, प०१२। २ जैनेन्द्रकुमार 'वह अनुभव' (जैनेन्द्र - प्रतिनिधि कहानिया), दिल्ली, १६६६, पृ० १२८ । ३ जैनेन्द्रकुमार 'परिप्रेक्ष्य', १९६५, प्र० स०, दिल्ली, पृ० १११ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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