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________________ ७० जनन्द्र का जीवन-दर्शन प्रक्रिया मे अनायास हमारी प्रिय से प्रिय मूर्ति का रूप ग्रहण कर लेता है । यद्यपि यह सत्य है कि परमेश्वर रूप का रूपाकार गे नही समा सकता तथापि जैनेन्द्र की दृष्टि मे भक्त की भक्ति ही यह अक्षम्य साधना कर पाती है। जैनेन्द्र के अनुसार प्रिय की प्रत्यक्ष प्रथवा समक्ष कल्पना करके उपामक की अनुरक्ति पोर भी बढ़ जाती है । उन की दृष्टि में प्रेम की प्रगाढता प्रनायाम जब उपासना करती है तो उपलब्धि गविक सुगम पोर सुनिश्चित है।' ईश्वर स्वरूप के सम्बन्ध मे जैनेन्द्र का ऐसा विश्वास है कि जिसमे अन्तिम प्रोर परिपूर्ण विश्वास हे वही ईश्वर है। जहा समपण मभव हो उसे ही ईश्वर र प मे भिहित करने में उन्हें कोई बाधा नही है। व्यक्ति मे जो विश्वास की क्षमता और अनिवायता हे पोर वही पर्याप्त प्रमाण हे, विश्वसनीयता की सत्यता । ईश्वर प्रानन्दस्वरूप जेनन्द्र के अनुसार ईश्वर प्रानन्दम्वरूप है।' प्रानन्द का तत्व न हो तो जीवन ही मभव नही है । हा, दुख क्लेश भी उगे अनुभव होता है। मका कारण स्वय अश में प्रशता की पनुभूति है । वह अनुभुति दुगमय गोलिा। होती है कि उसके प्राधार में पूणता गे विछोह है। फिर गी मोचन वय प्रानन्द का स्फूलिग है। जैनेन्द्र की दष्टि में प्राकृतिक सुषमा ने भो ईश्वरीय आहाद के ही दशन होते है। उनके अनुसार- - 'अग अगी का पृथक् भाव जब कि वेदना का बोध देता है । तब उसके प्रभाव प्रोर सयोग भाव में एक साथ प्रसाद की अनुभूति खिल उठती है। कारण, प्रत प्रकृति में जीवन सच्चिदानन्द स्वरूप है। व्यष्टि समष्टि गे अलग नही है। अलग की प्रतीति हाते ही अपुणता और विकृतिया दीखने लगती है।" जैनेन्द्र की उपरोक्त विचारधारा ही उनके माहित्य का मूल स्वर है। उनके साहित्य में समाहित पीडा अथवा वेदना का प्रमुख कारण अशत प्रतीति ही है। जैनेन्द्र के अधिकाश 'म' का बोन होते हा समर्पण के लिए पयत्नशील दृष्टिगत होते है । 'म' अथवा 'स्व' को 'पर' म विलीन करके वे एकमात्र परम सत्य अर्थात् ईश्वर का साक्षात्कार करना चाहते है। जगत म उनका द्वैत अर्थात् ईश्वर से वियोग बना रहता है। वे पीडा में ही प्रानन्द का अनुभव करते है, किन्तु उनम सदैव ईश्वर के समक्ष १ जैनेन्द्रकुमार 'समय, समस्या और सिद्धात', पृ० ४६ । २ जैनेन्द्रकुमार 'समय, समस्या और सिद्धात', पृ० ४८ । ३ जनेन्द्रकुमार 'समय, रामग्या और सिद्वात', पृ० ४८ । ४ वही।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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