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________________ जैनेन्द्र के ईश्वर सम्बन्धी विचार को 'ईश्वर' रूप मे ही स्वीकार किया है । जैनेन्द्र प्रत्येक विचार अथवा दृष्टि को सापेक्ष रूप मे ही स्वीकार करते है । व्यक्तिगत अभिमत को निरपेक्ष सत्य की स्वीकृति नही मिल सकती । जैनेन्द्र के अनुसार 'ईश्वर का स्वरूप किसी दूसरे को छोडकर कोई एक निश्चित हो नही सकता । इसी से ईश्वर ईश्वर है । सुविधा हम सब को हे कि अपने मन का स्वरूप उसको पहना ले । उसे रूप मे बाधना हमारी ही आवश्यकता है ।" इस प्रकार ईश्वर अनन्त रूपात्मक हो जाता है और पुन एक ऐसी स्थिति आती है जब सब रूप उसी के हो जाते हे । जैनेन्द्र के अनुसार ईश्वर, अल्लाह, गॉड आदि को पृथक्-पृथक् सत्ता मानने मे प्रश्न उपास्य का नही, उपासक का है । उपासक की निष्ठा ही उपास्य को सत्यता प्रदान करती है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे यदि सम्पूर्ण समर्पण भाव है तो उपास्य सत्य हो ही जाता है । चित्र उपास्य का कृष्णरूप हो अथवा क्राइस्ट का हो अथवा अन्य किसी का भी होयह प्रश्न वृथा है । जो संगत है, वह मात्र उपासक की हृदयगत सत्यता है । 1 जैनेन्द्र के अनुसार यदि ईश्वर के विशिष्ट रूप के प्रति आस्था सहज भाव से जाग्रत होती है, तब उसमे उपासना की सत्यता पर शका की जा सकती है, किन्तु जब प्रथावश उपासना की जाती है तब वह दबाव के नीचे उपासक मे प्रपनी उपासना से उल्टे भाव पैदा करती है । इस प्रकार के मिथ्याचार से उपासना भी मिथ्या बन जाती है । वस्तुत जैनेन्द्र की दृष्टि मे ईश्वर का स्वरूप चाहे कुछ भी हो उपासक की भावना और भक्ति ही सच्ची होनी चाहिए । यही कारण है कि जैनेन्द्र के साहित्य मे पात्रो को ईश्वरीय आस्था के लिए रूप व प्राकार पर टिकने की आवश्यकता नही हुई है । ये प्रतिपल अपने हृदय में ईश्वर के प्रति निष्ठा रखे हुए है । अपनी प्रास्तिकता को पोषित करते है । विवाद द्वारा वे भक्ति को खण्डित नही करना चाहते । ऐक्य की अनुभूति ही अन्तिम सत्य के रूप मे शेष रह जाती है । स्थूल बुद्धि द्वारा निराकार ब्रह्म को समभाग सभव नही है, अतएव भाव और श्रद्धा के सहारे ही उसे रूपाकार प्रदान करके ग्राह्य बनाया जा सकता है । भगवद्गीता मे कृष्ण का विराट् रूप अर्जुन को ग्राह्य नही हो पाता और वह कृष्ण से उनके साकार तथा सौम्य रूप को पुन देखने के लिए प्रार्थना करने लगते है । जैनेन्द्र के अनुसार उपास्य को हम निराकारता के क्षेत्र से मानो उतार कर अपने पास और प्रत्यक्ष लेने की चेष्टा किया करते हैं । परमेश्वर इस १ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० ४४ । २. 'श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ११, श्लोक ४५, गीताप्रेस गोरखपुर । ६६
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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