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________________ जैनेन्द्र के ईश्वर सम्बन्धी विचार ६७ देवी-देवता मे अविश्वास ऋग्वेदकालीन अनेक देवी-देवताओ मे जैनेन्द्र का विश्वास नही है। जैन धर्मावलम्बी होने के कारण उन्होने सत्य के अनेकान्तिक रूप को स्वीकार किया है । उनकी दृष्टि मे विश्वास के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति या वर्ग के अलग-अलग देवता हो सकते है, क्योकि आज भी कोई सूर्य का उपासक है, कोई दुर्गा का तो कोई गणेश का, किन्तु सभी के मूल मे एक ही परम सत्य का प्रकाश विद्यमान है। उसी की शक्ति सब में व्याप्त है। हमारी भावना विभिन्नता की कल्पना करती है, किन्तु यथार्थ मे एकता ही सत्य है । ज्यो-ज्यो मानव-बोध विकसित होता गया, त्यो-त्यो विभेद को मिटाकर एक परम सत्य की कल्पना जीवन के लिए आवश्यक प्रतीत होने लगी । यही कारण है कि वैदिककालीन अनेक देवी-देवता उपनिषद् और भागवत् काल के एक परब्रह्म के रूप मे ही स्वीकृत हो जाते है। जैनेन्द्र ईश्वर के सम्बन्ध मे विभेद को निरपेक्ष रूप से नही स्वीकार कर सकते। 'नई व्यवस्था' मे उन्होने पूर्व की परम्परा और पश्चिम की परम्परा द्वारा ईश्वर के सम्बन्ध में व्यक्ति की दूरी को ही व्यक्त किया है। उनकी दृष्टि में एक मत दूसरे मत से ऊपर उठने और अपनी सत्यता को प्रमाणित करने में अधिकाधिक गौरवान्वित हो जाता है। एक ईश्वर को सत्य मानने से सारे विश्वास उसी मे समाकर ऐक्य की प्रतिष्ठा करते है किन्तु अनेक देवी-देवताओ को मानते हुए उन्ही पर भटक जाने मे दृष्टि की सकीर्णता और मतवाद को ही प्रश्रय मिलता है, हृदयगत श्रद्धा और व्यापक दृष्टि विलुप्त हो जाती है।' ईश्वर . स्वयभू प्रश्न उठता है कि यदि ईश्वर एक है वह एक परम सत्य है तो उस सत्य का क्या स्वरूप है ? क्या वह व्यक्ति द्वारा ग्राह्य हो सकता है । यदि वह निराकार अमूर्त और अनन्त है तो वह सान्त व्यक्ति द्वारा स्वीकार हो पाता है ? क्या ईश्वर की उत्पति हुई है अथवा वह स्वयभू है ? आदि अनेको प्रश्न जैनेन्द्र के साहित्य मे समाधान ढूढने के हेतु उठ खडे होते है। ईश्वर उत्पन्न नही हुआ । वह सृष्टि का आदि मूल कारण है, स्वयभू है । जिसकी उत्पत्ति होती है, उसका विनाश भी निश्चित है। जन्म और मरण का क्रम अनिवार्य रूप से चलता है। किन्तु ईश्वर न जन्मता है, न मरता है । वह परम आत्मा है । 'गीता' में भी स्वीकार किया गया है कि वह कभी नही जन्मा और न वह मृत्यु को प्राप्त होता है और चूकि उसका आदि नही, इसलिए अत १ जैनेन्द्रकुमार 'नई व्यवस्था' (जैनेन्द्र की कहानिया, भाग १), पृ० १७३ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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