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________________ जैनेन्द्र का जोवन-दर्शन अद्वैतवादी नही प्रतीत होते तथापि वे विश्व की अखण्डता, एफ ब्रह्म की शक्ति पर पूर्ण विश्वास करते है। द्वैत सासारिक तथ्य है । ऐक्य आध्यात्मिक सत्य है । जीव और ब्रह्म का ऐक्य ही जीवन का परम लक्ष्य है। जैनेन्द्र के अनुसार जोव का अस्तित्व अपने मे अपूरा हे । हममे एक-दूसरे की और फिर शेष की आवश्यकता में रहता है । इसलिए तब जीवात्मा का जो अखण्ड चिन्मय स्रोत है, ब्रह्म है, वही है । ऐसा मानकर हमारा जीवत्व खण्डित के बजाय अखण्ड होता है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे शकर का भी यही आशय है। भेद तो ऊपरी माया तक ही परिमित है। उसकी दृष्टि मे समस्त चेतन्य से अस्तित्व का, उस अखण्ड ब्रह्म से अभिना भाव सबध है । जैनेन्द्र के अनुसार सृष्टि मे ब्रह्म और जीव दो सत्ता नही है । प्रतीति हमे द्वैत की होती है, किन्तु यदि निरा द्वैत ही होता तो प्रतीति तक सभव कैसे होती ? इसलिए उस अनेक रूप प्रतीति के रहते एकता का प्रत्यय अनिवार्य हो जाता है। 'मैं' अथवा अलगाव ही दुख का कारण है, क्योकि मेरे 'मे' भाव के रहते हुए ब्रह्म से साक्षात्कार असम्भव है । जब 'मैं' मिट जाता है, अर्थात् उसे अपनी अहता का बोध नही रहता वह 'पर' अर्थात् ईश्वर प मे ही लीन रहता है, तभी सत्य की उपलब्धि सम्भव हो सकती है। आध्यात्मिक दृष्टि से ही नही, व्यावहारिक जगत में भी द्वैत की अनन्तता सम्भव नही है। जगत की सायकता द्वैत पर आश्रित है, किन्तु जीवन का लक्ष्य अद्वैत की प्राप्ति होना चाहिए । जैनेन्द्र के समग्र माहित्य म यह आदर्श स्पष्टत दृष्टिगत होता है। उपक पात्र सदैव अद्वैत की अोर प्रवृत होते हुए दष्टिगत होते हैं। उनकी दृष्टि म द्वैत द्वन्द्व का मूल है। अतएव द्वैत मे पार जाकर ही व्यक्ति शान्ति और सत्य की प्राप्ति कर सकता है। द्वैत से ऊपर अद्वैत ही वह परम सत्य है, जिसे उन्हान ईश्वर रूप मे अभिव्यक्त किया है। परम अद्वैत जीव के साथ जिस प्रकार एक है, वैसे ही एक है जड के साथ भी। ईश्वर की परम सत्ता मे द्वैत को अवकाश नही है। द्वैत का स्थान हमसे है। जहा युद्ध है, दो पक्ष है वहा भी अभेद की सम्भावना है, क्योकि लडते हुए उनके बीच एक जमीन रहती है, जहा वे सधि पर पा सके ।' १ जैनेन्द्रकुमार 'समय, समस्या और सिद्धात', पृ० ४४ । २ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० ४५।। ३ जैनेन्द्रकुमार जैनेन्द्र की कहानिया', (भाग १, नई व्यवस्था), १९६२, प्र० स०, दिल्ली, पृ० स० १६८।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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