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________________ ५२ जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन रहता है। भौतिकता मे शान्ति नही । क्योकि ससार नश्वर हे । अतएव जैनेन्द्र एकमा र ईश्वर को ही सत्य रूप में स्वीकार करते हे । यही जैनेन्द्र की आत्मा का सत्य है । 'सब नही के पीछे एक है और वह हे ईश्वर ।' जेनेन की ईश्वरीय आस्था केवल व्यक्तिगत जीवन तक ही परिमित न होकर देश, समाज, धम और राष्ट्र के सन्दभ मे भी फलित होती है । यही उनके विचारो की मोलिकता हे । अर्थ का परमार्थीकरण राजनीति में मानवतावादी दृष्टिकोण तथा अह विसर्जन की भावना उनकी आस्तिकता के ही प्रतीक है। जैनेन्द्र अज्ञेयवादियो के सदृश्य ईश्वर को रहस्यमय रूप में ही स्वीकार करते है, उनके बारे में कोई निश्चित स्वरूप नही प्रस्तुत करते । सृष्टि की अखण्डता मे एकमात्र परब्रह्म का रूप ही परिलक्षित होता है । आत्मोन्मुख होकर ही अखण्डता की उपलब्धि हो सकती है।' जैनेन्द्र की धम सम्बन्धी धारणा बहुत ही स्पष्ट है । सामान्यत धर्म के स्वरूप को लोग सम्प्रदाय मे आबद्ध करके उसकी प्रात्मता की अवहेलना करते है। जैनेन्द्र के अनुसार धर्म का व्यापक रूप व्यक्ति की सहनशीलता में प्रतिनिष्ठित है । जीवन मे कष्टो को सहते हुए उत्तरोत्तर कर्तव्य मार्ग की पोर बढते जाना ही व्यक्ति का धर्म है। व्यक्ति का धर्म ही गात्विक धमभाव का भी बोधक है। जैनन्द्र के समस्त उपन्यास और कहानियो म धम-भावना व्यापक रूप से छायी हुई है। उनके पात्र अपनी पीडा में ही जीते है। मणाल समाज से तिरस्कृत होकर अधिक-से-अधिक कष्ट सहने में तथा 'अधे का भेद' कहानी में प्रवे की स्त्री अर्थोपार्जन के लिए तन बेचने को भी अधर्म नही समझती। वस्तुत जैनेन्द्र की धर्म सम्बन्धी धारणा सकीर्णता की परिचायक न होकर दृष्टि की व्यापकता की सूचक है। जैनेन्द्र आत्मा को परमात्मा का ही अश मानते है। 'आत्मा अपने परम रूप म परमात्मा हे । आत्मा विकासशील है। प्रात्मता में व्यक्ति-भेद नही १ जैनेन्द्र कुमार 'व्यर्थ प्रयत्न' (कहानी) २ जैनेन्द्र ने इस ब्रह्म को विश्वास और उपासना का विषयमान न रहने देकर वैयक्तिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक आचार-विचार के प्रेरक स्रोत के रूप में इसकी वैयक्तिक और अकाट्य व्याख्या की है, जो उनकी सबसे बडी देन है।' ----जनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० १६ । (उपोद्घात मे-वीरेन्द्रकुमार गुप्त) ३ जैनेन्द्र कुमार , ‘समय और हम', पृ० ५३ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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