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________________ जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन पीली प्रकृति के भीतर साहित्य-सृजन करने से आकृति प्रधान हो जाती है और सृजन कार्य गौरण हो जाता है । जैनेन्द्र के अनुसार आत्मा सूक्ष्म है । वह अन्तर्निष्ठ है । शरीर के ढाचे से आत्मा का कोई सम्बन्ध नही है । शरीर तो केवल आत्माभिव्यक्ति का साधन है । जैनेन्द्र के साहित्य का अध्ययन करने से यह ज्ञात होता है कि उन्होने उपन्यास अथवा कहानी की कला से अधिक उसके सत्य पर बल दिया है । उनका विश्वास है कि कहानी कला के ज्ञान के प्रभाव मे भी महानतम कृति की रचना सम्भव हो सकती है । जैनेन्द्र के अनुसार 'क्या कोई शिशु ऐसा हो सकता है, जिसके भीतर वह जटिल यन्त्र न हो, जिसे मानव यष्टि कहते है ? लेकिन एक अबोधा भी माता बन जाती है और उसे उस जटिलता का कुछ पता नही होता । जिसका निष्पन्न रूप उसका शिशु है ।" वस्तुत जैनेन्द्र के अनुसार जिस प्रकार शरीर के यन्त्र का सम्पूर्ण ज्ञान होने पर भी कोई वैज्ञानिक शिशु की सृष्टि नही कर सकता, उसी प्रकार साहित्य की टैकनीक को जानने से ही साहित्य-सृजन सम्भव नही हो सकता । जैनेन्द्र की दृष्टि मे साहित्य के सृजन के लिए श्रावश्यक है आत्मबोध अथवा पीडा । पीडा के रस से हुआ व्यक्ति ही सच्चा साहित्यकार बन सकता है । जैनेन्द्र के साहित्य का उत्स उनकी पीडा मे ही समाया है, इसीलिए उनके पात्रो के जीवन मे आत्मपीडन का भाव अधिक दृष्टिगत होता है । २५८ आधुनिक साहित्य मे विषय से अधिक आकार को प्रधानता दी जाती है । नया - पुराना साहित्य परम्परागत साहित्य से अतिरिक्त कोई नितात नवीन स्थिति अथवा स्वरूप नही है । नया कुछ पैदा नही होता और पुराना त्याज्य नही होता, शर्त यह है कि जो स्वीकृत हो वह काल की विभक्तता से परे हो तथा उसमे उपयोगिता से अधिक सत्यता का समावेश हो । जैनेन्द्र के अनुसार नये पुराने शब्द की सार्थकता एक स्थिति तक ही लागू हो सकती है । उसके आगे उसकी सार्थकता नही है । वे ऊपरी है तथा रूप सज्जा की अपेक्षा से है । जैनेन्द्र के अनुसार आरम्भ से ही नाना वादो के द्वारा विविध भावो का प्रतिनिधित्व होता रहा है, किन्तु आधुनिक काल मे झगडा प्रवृत्ति के शब्द पर ही अटक गया है, 'नयापन' अथवा पुरानापन । नयेपन के जोश ने साहित्यकारो को पुराने साहित्य के प्रति प्रस्थाशून्य बना दिया है। जैनेन्द्र नये-पुराने के भेद को समने मे स्वयं को असमर्थ पाते है । उनकी दृष्टि से तो आने वाला हर क्षण ही नवीन है और बीता हुआ हर क्षण पुराना है । क्षण के पुराने और नये होने से साहित्य की अखण्डता मे कोई परिवर्तन नही होता । किन्तु प्राजकल नयेपन १ जैनेन्द्रकुमार 'जैनेन्द्र की कहानिया', भाग 8, पृ० स० २६ ( भूमिका से ) ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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