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________________ जैनेन्द्र परम्परा और प्रयोग २५७ का स्वरूप चिरस्थायी नही हो पाता। अतएव साहित्य के लिए कालातीत होना आवश्यक है। उनकी दृष्टि में शेष साहित्य वही है जो काल को जीतता हुआ टिका रह जाता है। साहित्य मे एक का एकत्व विलीन होकर सर्वत्व मे समा जाता है। इस प्रकार साहित्य विशिष्ट व्यक्ति और स्थिति का प्रतिनिधि न होकर सर्वकाल का हो जाता है । जहा साहित्य तत्काल की यथार्थता से आगे नही जा पाता, वहा साहित्य अपने स्थायित्व की क्षमता को खो बैठता है। साहित्य का लाभ ही यह है कि वह तत्काल को और यथार्थ को भावी सम्भावनाप्रो की दिशा मे आकर्षित करता है और जीवन को मार्गदर्शन देता है । यह समझना कि साहित्य मात्र सामाजिक यथार्थ का दर्पण है, जैनेन्द्र को मान्य नहीं है। हजारो वर्षों के बाद आज भी यदि शास्त्र हमारे लिए जीवित है तो यही कारण है कि कथा के साथ ही उसमे जीवन, धर्म और जीवन कर्म को उद्घाटित करने की क्षमता विद्यमान है । इसीलिए साहित्य वह तत्व बन पाता है, जो काल की विभक्तता को अपने भाव से भर देता है तथा हममे चिरन्तन, शाश्वत सत्य को जाग्रत करता है। जैनेन्द्र के साहित्य के सम्बन्ध मे इसीलिए असामाजिकता का आरोपण किया जाता है। किन्तु जिसे हम सामान्यत असामाजिकता समझते है, वह जैनेन्द्र के कालातीत विचारो का द्योतक है । साहित्य मे कुछ अशो मे अतिरेक भी स्वीकार्य हो सकता है । रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भी यथार्थ सत्य की अभिव्यक्ति के हेतु साहित्य मे अतिशयोक्ति को आवश्यक माना है । यथार्थ के सत्य को यथातथ्य रूप मे ग्रहण करने से उसकी अभिव्यक्ति मे भावो की प्रभावोत्पादकता उतनी अधिक नही हो जाती, जितनी कि अतिश्योक्ति के आधार पर होती है। साहित्य और टैकनीक ___ भाव के अनुकूल ही जैनेन्द्र ने भावाभिव्यक्ति भी की है। जिस प्रकार विषय काल की सीमा मे परिमित नही है, उसी प्रकार उनकी अभिव्यक्ति की क्षमता भी नये-पुराने के बन्धन से पूर्णत उन्मुक्त केवल अभिव्यक्ति ही है । उनकी दृष्टि मे भाव न कभी नये बनते है और न पुराने होते है । बनना केवल आकार का ही होता है। किन्तु आकार की भी सीमा है । लेखक के लिए यह जानना आवश्यक है कि कही भाव कला इतनी प्रमुख न हो जाय कि भाव दब जाए। १ जैनेन्द्र से साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचार । २ रवीन्द्रनाथ टैगोर : 'साहित्य', पृ० २२ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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