SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जनेन्द्र के जीवन-दर्शन की भूमिका था, वही व्यक्ति-चेतना कुठित होती जा रही थी। समाज मे व्यक्ति की अतश्चेतना, पके मन मे अवस्थित प्रेम की भावना को उपन्यास और कहानियो के मार.म से पूर्णत पोषण नही मिल रहा था । एक ही मन स्थिति मे बने रहने । साहित्यिक-परिवेश गे नवोन्मेव का अभाव था। ऐसी स्थिति मेनेन्द्र जी ने साहित्य को, एक नवीन स्वर ही नही प्रदान किया, वरन् उनके पवेश मे ला.त्य-जगत् मे एक -न्तिकारी प्रभाव की स्थिति उत्पन्न हो गई सोर रामरत हिन्दी कथा-साहित्य ने एक नवीन करवट ली । जनेन्द्र की सगन्वयात्मक दृष्टि ने विज्ञान की विभीषिका से सत्रस्त मानव को प्रद्धा और विश्वास का अपूर्व सम्बल प्रदान किया। उन्होने भोतिकता गौर माध्यात्मिकता के मध्य सामन्जस्य की एक कडी जोड कर मानव-जीवन को सारसता की ओर उन्मुख किया। जैनेन्द्र जी.नालगत प्रश्नों के समाधान जेनेन्द्र का साहित्य मानव जीवन के ज्वलन्त प्रश्नों का समाधान प्रस्तुत करता है। नातिगिक-परिवेश मे परम्परागत दार्शनिको से पृथक् उन्होने कि नवीन पिट प्रदान की है । सामान्यत अध्यात्मवाद और भौतिकता के ५१ लिनागे में विभाजित करके देखा जाता है। दोनो पृथक् वर्ग मे बट गये है, किन्त जीवन का सत्य वर्गों में विभाजित होकर अग्राह्य हो जाता है। जैनेन्द्र की जीवन-दृष्टि विश्लेषणात्मक न होकर सश्लेषणात्मक है। विग्रह मे एकपदीय प्रबलता दृष्टिगत होती है और हठवाद को प्रश्रय मिलता है, किना दर्शन का T- य ग घर्ष मोर वैमनस्य न होकर प्रेम और स्वय को मुलभूत दृष्टि प्रदान करना है । मामान्यत प्राचीन दार्शनिको ने भौतिकता और अध्यात्मिकता के द्वन्द्व के मध्य किसी समन्वयात्मक मार्ग की स्थापना नही की थी। गद्यपि स्वामी विवेकानन्द ने इस क्षेत्र मे समन्वय का प्रयास किया था। किन्तु उनका योगदान सामाजिक पोर राजनीतिक क्षेत्र तक ही सीगित था। जैनेन्द्र ने सर्वप्रथम साहित्य के माध्यम से जीवन की इस विशाल खाई को पाटने का प्रयास किया है। उन्होने विचार और व्यवहार मे सन्तुलन रथापित करने का प्रयास किया । दर्शन मे वैचारिक पक्ष अधिकाशत प्रधान रहा है। शास्त्रीय रूप मे नीति और उपदेश की बाते शास्त्रो मे कही गई थी, किन्तु उनमे नित्यप्रति के जीवन संघर्ष से त्राण पाने का व्यावहारिक मार्ग निर्दिष्ट नही किया गया था। फलत वैचारिक पक्ष अपनी शुष्कता के कारण नीरस और जटिल होता गया। ऐसी स्थिति मे सदा से उपेक्षित व्यवहार पक्ष पर विचार करने की आवश्यकता प्रतीत हुई।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy