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________________ जनेन्द्र का जीवन दर्शन मोतक है। किसी व्यक्ति के लिए यह कहना कि वह दानिकह, गगो शानि नही है, अथवा तेराक है, वाशनिक नही है, अनुचित पार पाता है। मूलत प्रत्येक व्यक्ति चाहे दापि हो या मानिा, गतो शानिगे या साहित्यिक, सब के मूल में मानवीय सोदना प्रवासी नगा । है । जैनेन्द्र का व्यवहार-दर्शन वस्तृत जैनेन्द्र दाशनिक हे या राय ? म प्रश्न कर वाद विवाद करना निराधार है । जैनेन्द्र ने जीवन को उसकी समगता में गमका पारा किया है। जीवन अखण्ड काई से यह साहित्य, मनोविज्ञान मा, मेरा त नही है, केवल हम अपनी (अन्ययन की) सुविधा के vिो नि । गो में विभाजित कर देते है । अन्य ना जीवन की सत्यना बोर की सम्पुगता मे ही सुलभ हो सकता है । जनेन्द्र चाहे साहित्यकार हो अगवा पानि , fair! उन सबसे परे वह एक त्यत्ति है । उन्होन मानव जीवन के II त - उनके व्यावहारिक धरातल पर रामभाने का प्रयाग दिया है। जानी ' गा के मन्थन से उन्हे पन नितान्त मालिका प. शं अथवा दाशनिक होने की सूचना है। पिगो । गत माग से पृथक नही है, फिन] साहित्य के नाता पर ho rhition ढग है, जो उसे परम्परागत माग म पर प्रतिष्ठित करता है। सष्टि का शाश्वत सत्य अपरिवतनी है, Inागगा रने और व्यक्त करने की दृष्टि मे युगानुर प परिवर्तन होता रहता है। जीव, जगत के परस्पर सबध तथा उनके रहस्य को समझान को fir रागार से दूर नही गए, वरन् प्रतिदिन के जीवन मे ही उन्हान सय bt atta प्रयास किया। मानव-धम की विराट् भूमिका ना तहाने अपने अन्दाग न । से समझना चाहा है। अपनी अान्तरिक सहानुभूति और सवेदना गोग। उन्होने गम्भीरता और जटिलता में भी सरलता तथा भावगत गमताका सन्निवेश किया है। हिन्दी-कथा-साहित्य के क्षेत्र में मुशी प्रेमचन्द-का। मे शास्त्यि जगत परम्परागत मान्यताओ, सामाजिक मर्यादा, विशेषत प्रेमचन्द्र की सूचारवादी प्रवृत्ति के कारण अत्यधिक बाह्योन्मुखी हो गया था। समाज और उसकी समस्या ही साहित्य का मुख्य विषय था, यद्यपि उरा युग की माग । दान हुए प्रेमचन्द का साहित्य अपना अद्वितीय स्थान रखता है। उनके उपन्यागा मे जन-जीवन के घात-प्रतिघात, ममता, सहानुभूति, त्याग आदि मानवीय गुगगा की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति हुई है, किन्तु जहा जीवन का बाह्य पक्ष पुष्ट हो रहा
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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