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________________ जैनेन्द्र और व्यक्ति २२५ यथार्थ : प्रकृतिवाद का पर्याय नही निष्कर्षत जैनेन्द्र के साहित्य मे आदर्श और यथार्थ की नितान्त मौलिक दृष्टि प्राप्त होती है । उन्होने यथार्थ का जो स्वरूप स्वीकार किया है, वह प्रकृतिवादी साहित्यकारो के सदृश नग्नता का घिनौना चित्रण नही। जैनेन्द्र के साहित्य मे अभिव्यक्त यथार्थ सत्य से सम्बन्धित है । उसमे यथातथ्य चित्रण होते हए भी वीभत्सता को स्वीकृति नही मिलती है। यथार्थवाद यथार्थ के नाम पर उत्तरोत्तर प्रकृतिवाद की ओर उन्मुख हुआ प्रतीत होता है । उसमे बन्धनहीनता फैशन बन गई है। जैनेन्द्र का साहित्य फैशन के बहाव से दूर निजता की वास्तविकता से युक्त है । यथार्थवादियो का नारा है कि घिनौना, फूहड, वीभत्स सब चलेगा, केवल आदर्श नही चलेगा । जैनेन्द्र का आदर्श से कोई विरोध नही है । उनकी दृष्टि मे आदर्श का निषेध व्यक्ति को पूर्णता प्रदान करने मे कदापि सफल नही हो सकता। जैनेन्द्र के पात्रो का आदर्श उनके स्वप्नद्रष्टा होने मे है । स्वप्न अर्थात् सम्भावना मे ही उनके पात्र अपने आदर्श जीवन की परिकल्पना करते है । इस प्रकार आदर्श प्राप्ति द्वारा व्यक्ति की सम्भावनाओ का हनन् नही होता। जैनेन्द्र के अनुसार 'जो हम है वही हमारा जीवन नही है। जो होना चाहते है, हमारा वास्तव जीवन तो वही है । जीवन एक अभिलापा है।" परस्परता जैनेन्द्र-साहित्य का सर्वोपरि आदर्श है कि व्यक्ति, व्यक्ति के भेद को मिटा दिया जाय । इस अभिन्नता से उनका तात्पर्य परिस्थितिगत समानता से न होकर हृदयगत समानता और एक्य से ही है । व्यक्ति मे अन्तर हो सकता है, किन्तु पारस्परिक भावो मे अन्तर होने के कारण मतभेद नही उत्पन्न होता । जैनेन्द्र की दृष्टि बहुत ही व्यावहारिक है । इसलिए वे व्यक्ति को आदर्श मे नही वरन् व्यवहार में केन्द्र मानकर चलते है । आदर्श बाहर नही, व्यक्ति-चित्त मे निहित होता है ।' उनका विश्वास है कि विशिष्ट मान्यताए प्राप्त करने से व्यक्ति स्वय को समाज का आदर्श समझने लगता है । उसके मन मे यह भाव जाग्रत हो जाता है कि वह सदाचारी है, अतएव उससे कोई त्रुटि हो भी नही सकती। सदाचार की ओट मे वह स्वार्थ का बीज बोने मे ही सहायक होता है। आधुनिक समाज मे ऐसे ही गण्यमान्य व्यक्ति अधिक है, जिनके मन मे स्वार्थ, १. हर्षचन्द्र 'सूक्ति सचयन', प्र० स०, १९६५, दिल्ली, पृ० स० ११३ । २, जैनेन्द्र कुमार , 'समय और हम', पृ० स० ६४ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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