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________________ १७२ जैनेन्द्र का जोवन-दर्शन उग्र हो जाती है कि सामने ही समर्पण न मिलने पर वह अपने शरीर को ही नोचता खसोटता है। ऐसी स्थिति 'फोबिया'' मे भी पाई जाती है । 'दिन रात सबेरा'२ मे माननीय कवियत्री अपने अहता के बोझ को सहन नही कर पाती 'वह जैसे चाहती है कि शरीर ही न रह जाए, सब बर्फ की सिल ही बन जाए। सब सवेदन जडीभूत होकर शून्यवत् हो जाय । मै होकर जो तू को खोजना और याद रखना पडता है सो मुसीबत के सिवा क्या है ? मै ही मिटे तो कितना अच्छा कि सब 'उस' और 'तुम' को एक बार ही छुट्टी मिल जाए।' उसके मन मे यही चीत्कार उठता है कि 'मै क्यो, मै क्यो ? और वह स्वय को दलित होते हुए पाती है। हिपनोसिस की स्थिति मे वह स्वय नोचती-खसोटती है । उन्मादावस्था मे वह देखती है कि 'उसको दला और मसला जा रहा है उनका ही चेहरा पीडा से और आनन्द से विह्वल हुआ जा रहा है। अपनी ही काया दीखती है और हर घोरता, हर बर्बरता, हर अभ्यर्थना ओर हर पूजा मे उसे अपनी काया मे पुलक भरता भी दीखता है । इस प्रकार कवियत्री अपने अहता को विगलित करती है। उसका वहशीपन कामुकता नहीं, वरन् सहजता की प्राप्ति का प्रयास है। प्रत्यक्षत वह पुरुषो मे माननीय समझी जाती है। उसे उन पर ही उठाया जाता है, किन्तु उनकी अहता किन्ही चरणो मे विसर्जित होने के हेतु उन्मत्त रहती है। अतएव वह परिकल्पना मे नही पर की उपस्थिति की अनुमति करती है । जैनेन्द्र के अनुसार मानव जीवन के इस महत्वपूर्ण सत्य की उपेक्षा नहीं की जा सकती । समाज मे व्यक्ति मर्यादित हो सकता है, वहा उसकी विवशता होती है, किन्तु एकान्त मे वह अपने अन्तस् मे आलोकित सत्य की अभिव्यक्ति किए बिना सहज नही हो पाता । जैनेन्द्र के अनुसार सत्य की उपेक्षा करके कभी भी सहजता और स्वास्थ्य की कल्पना नही की जा सकती। उनके साहित्य मे कामजन्य जो भी चेष्टाए घटित होती है, उनमे कही भी अपनी ओर से होता हुआ प्रयत्न दृष्टिगत नही होता। प्रयत्न मे व्यक्ति की ऐन्द्रिकता का भान होता है । ऐसा प्रतीत होता है कि वह स्व के प्रति बहुत सजग है, किन्तु 'नि स्व होकर घटित होने वाले भाव मे अन्तर्मन की जटिलता १ जार्ज एलिन 'साइकोएनालिसिस-टुडे', प्र०स०, १६४८, ब्रिटेन, । २ जैनेन्द्रकुमार जैनेन्द्र की कहानिया, नवा भाग, प्र०स०, दिल्ली, १६६४ । ३ जैनेन्द्र की कहानिया, नवा भाग, प्र०स०, दिल्ली, १९६४, पृ० १७६ । ४ 'सभ्य व्यापार मे जिन्हे बर्बर और अमानुषिक मानते है, ऐसे काटने-नोचने आदि के कृत्यो मानो परस्पर को आनन्द और तृप्ति देने वाले होते है। इस मिथुन योग मे मानो हमारा कब अहकृत लुप्त हो जाता है।' -जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ०स० ५२५ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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