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________________ जैनेन्द्र के ग्रह सम्बन्धी विचार १७१ मिलता । और अन्त मे वह विषाद-रोग (मेलन कोलिया) से ग्रस्त हो जाती है, क्योकि कोई उसकी अन्तस्-पीडा को नहीं समझ पाता और न ही वह उसे खुलकर व्यक्त करने में समर्थ होती है । वह नही जानती की वह क्या चाहती है, फिर भी अन्दर से सब शून्य है । बीमारी की अवस्था मे जब अचानक वह बालक उसके सम्पर्क मे आता है तो वह फूट पडती है। उसका अन्तस् विगलित हो उठता है और वह बालक के नेत्रो मे छलकते स्नेह-रस मे सब कुछ पाकर तुष्ट हो जाती है। अन्तत बालक की विनत कर्मशीलता ही रत्नप्रभा के अह को परिष्कृत करके ईश्वरोन्मुख करने में समर्थ होती है। रत्नप्रभा का धन-मद चूर हो जाता है । अहकार के कारण ही वह अकिचन बालक का स्नेह प्राप्त करने मे असमर्थ थी। धन के वैभव से पूर्ण होते हुए भी वह स्नेह के अभाव मे शुष्क बनी रहती है। अन्त मे उसे ज्ञात होता है कि 'लक्ष्मी चचल है और अकिचन भक्ति ही व्यक्ति का सर्वस्व है। यह मै तुममे देख सकी । अहकार की जगह यह बात मुझ मे बसी रहे इसके लिए सदा तुम्हारा ध्यान धरूगी।३ जैनेन्द्र के साहित्य मे अहतप्त चेतना मानो सदा हारने को तडपती रहती है। प्रतिष्ठा और मान-सम्मान की प्राप्ति के अनन्तर भी मन मे एक रिक्तता बनी रहती है । व्यक्ति उसे कितना भी दबाना चाहे तथा स्वय पर विजय प्राप्त करना चाहे किन्तु वह सर्मथ नही हो पाता । एकान्त मे एकाकी अह विक्षिप्त हो उठता है, उसे अपनी अहता का बोध त्रास देने लगता है । समर्पण के अभाव मे सब कुछ व्यर्थ प्रतीत होता है। ऐसी स्थिति मे जो चेष्टाए होती है, वे हिस्टीरिया की ही पर्याय होती है । हिस्टीरिया मे व्यक्ति की अह-चेतना इतनी १ 'इस छद्मवेश मे क्यो जी, तुम क्यो आए ? यह तो परीक्षा का कायदा नही है । लेकिन जब मैं तुम्हे पहचान गई हू, छलना मे आने वाली नही हूँ। मेरे ज्ञान की परीक्षा ही लेने आए हो न तुम, बैरागी ? मुझे मान पर चढाकर झुकते चले गये, झुकते चले गये । अब मै यह खेल समझ गयी हू, मेरे म्हाने चाकर राखो जी, प्रभु म्हाने...।' ---जैनेन्द्र प्रतिनिधि कहानिया, पृ० २६५ । २. मूल द्वन्द्व 'मै' और 'स्व' मे है उसी को कहिए अह का और अखिल का द्वन्द्व । भगवान समष्टि मे व्याप्त है-'वह सागर है मै बूद हूँ' । यही मूल द्वन्द्व है। -जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० स० ५३६ । ३ जैनेन्द्र प्रतिनिधि कहानिया, पृ० २६६ । ४. जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० ५३६ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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