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________________ जैनेन्द्र की दृष्टि मे भाग्य, कर्म-परम्परा एव मृत्यु १२६ शरीर मे जन्म लेता है तो उसके पूर्व कर्मों के द्वारा किस प्रकार भाग्य का निर्माण होता है ? जैनेन्द्र के विचारो को लेकर जो समस्या उत्पन्न होती है, ठीक वही समस्या बौद्ध दार्शनिक नागसेन के दार्शनिक-विचारो मे भी दृष्टिगत होती है। भिनान्दर और मन्त की वार्ता के द्वारा पुनर्जन्म सबधी विचारो पर प्रकाश डाला गया है। उनकी दृष्टि मे नाम और रूप जन्म ग्रहण करते है। जिस नाम और रूप से व्यक्ति पाप या पुण्य करता है, उन कर्मों से दूसरा नाम और रूप जन्म ग्रहण करता है । भिनान्दर मन्त से पूछते है कि जब एक नाम और रूप से कर्म किए जाते है, तो वे कहा ठहरते है ? उपरोक्त समस्या के समाधान मे मन्त उत्तर देता है कि कर्म छाया की भाति नाम रूपात्मक व्यक्ति का पीछा करते रहते है । दिए की लौ का दृष्टान्त देते हुए समझाया गया है कि जिस प्रकार रात के पहिले पहर मे जो टेम होती है, वही दूसरे या तीसरे पहर मे वही रहती है, उसके घटने-बढने से लौ मे अन्तर नही आता है। ठीक उसी प्रकार किसी वस्तु के अस्तित्व के सिलसिले मे एक अवस्था उत्पन्न होती है, एक लय होती है--इस तरह प्रवाह जारी रहता है। एक प्रवाही की दो अवस्थाओ मे एक क्षण का भी अन्तर नही होता, क्योकि एक के लय होते ही दूसरी उत्पन्न हो जाती है। इसी कारण न (वह) वही जीव और न दूसरा ही हो जाता है । 'एक जन्म के अतिम विज्ञान (चेतना) के लय होते ही दूसरे जन्म का प्रथम विज्ञान उठ खडा होता है। इस प्रकार एक जन्म के बाद तुरन्त ही दूसरे जन्म की अवस्था का प्रारम्भ हो जाती है और उसके पूर्व कर्म साथ-साथ चलते है । 'छान्दोग्य उपनिषद्' मे तथा वादरायण आदि के द्वारा भी पुनर्जन्म और 'कर्म परम्परा' के सिद्धात को स्वीकार किया गया है। जैनेन्द्र की दृष्टि और सामान्य अभिमत उपरोक्त परम्परागत दार्शनिक विचारो के सन्दर्भ मे जब हम जैनेन्द्र के विचारो का विश्लेषण करते है तो उनमे कर्म परम्परा के सम्बन्ध मे कोई सगति नही दृष्टिगत होती । जैनेन्द्र ने व्यक्ति के पुनर्जन्म को कई बार अपने साहित्य मे स्वीकार किया है तथा वे यह भी मानते है कि व्यक्ति मृत्यु के द्वार से सीधे नया जन्म ग्रहण करता है, किन्तु उनके पूर्व कर्म सम्बन्धी विचारो की समस्या का समाधान फिर भी नहीं मिल पाता । जैनेन्द्र ने 'कल्याणी', 'रुकिया बुढिया' तथा 'मौत की कहानी' आदि उपन्यास तथा कहानियो मे यत्र-तत्र १ राहुल साकृत्यायन 'दर्शन दिग्दर्शन', हजारीबाग सेण्ट्रल जेल, १९४२, पृ० ५५४-५५ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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