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________________ १२८ जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन व्यक्ति की प्रासक्तिया और अनुभूतिया चारो ओर तन्तु रूप मे फैलकर साहित्य, कला कृति आदि के रूप मे व्यक्ति के मरणोपरान्त भी जीवित रहती है । 'सुखदा' मे लाल के कथन से इसी तथ्य का बोध होता है--"हम तुम नही जीते सुखदा, जीता खुद जीवन है । वह इतिहास मे जीता है, विकास मे जीता है । वह हमारा तुम्हारा नही है, बल्कि हम उसमे है ।" "इस प्रकार जैनेन्द्र के अनुसार मृत्यु के द्वारा व्यक्ति अपना और कुछ का ही नही रहता, वरन् सब का और असत्य का हो जाता है । " जैनेन्द्र के अनुसार जन्म-मरण का चक्र व्यक्तित्व के अथवा आत्मता के विकास की दृष्टि से कोई महत्व नही रखता । जैनेन्द्र की दृष्टि मे यह निश्चित रूप से नही कहा जा सकता कि आत्मा, जिसका पूर्व शरीर से सबध था, उसी मे प्रवेश करेगी, जिस प्रकार हर पतझड मे पत्ते वृक्ष से भर जाते है और बसत मे फिर हरे-भरे पत्ते खिल आते है । इस प्रकार वृक्ष का ही बार-बार नवजीवन होता है, तथा पतझड और बसत रूपी जन्म-मरण का क्रम तो वृक्ष रूप समष्टि से जीवन का साधनमात्र है । उसी प्रकार 'जन्म-मरण व्यक्ति भोगता हो, लेकिन इस भोग द्वारा वह समष्टि-लीला को ही व्यक्त कर रहा होता है । वस्तुत व्यक्ति का सम्बन्ध मृत्यु के साथ ही समाप्त हो जाता है। उसके वर्तमान जीवन के कर्मों का भावी जीवन से कोई सम्बन्ध नही होता । व्यक्ति के कर्म मृत्यु के बाद समष्टि मे व्याप्त होकर प्रमर हो जाते है । कम की स्थिति विभिन्न दार्शनिक सम्बन्धी सदर्भ जैनेन्द्र के विचारो का उपरोक्त विवेचन करने के पश्चात् यह समस्या उत्पन्न होती है कि व्यक्ति के व्रत वर्तमान क्रियामारण कर्मों की क्या सार्थकता है ? तथा व्यक्ति का भाग्य सचित कर्मों के अभाव मे किस प्रकार निर्मित होता है ? जैनेन्द्र के साहित्य मे अभिव्यक्त भाग्यवादी विचार धारा उनके पुनर्जन्म सम्बन्धित विचारो के साथ सगत नही प्रतीत होती है । भाग्य व्यक्ति के क्रियामाण कर्मो के पुण्य और पाप का सचित रूप ही है । प्रारब्ध व्यक्ति के सचि कर्मो का श है । यदि व्यक्ति अपने वर्तमान नाम और रूप से सर्वथा असम्बद्ध १ जैनेन्द्रकुमार 'सुखदा', पृ० १७१ । २ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० ६०१ | ३ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम' पृ० ५६८ । ४ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम' पृ०५६८ । ५ क्रियामाण कर्म से तात्पर्य वर्तमान जीवन के कर्मों से है ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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