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________________ जैनेन्द्र और धर्म १०६ परहित ____ जैनेन्द्र के अनुसार मानव-धर्म परहित की भावना पर आधारित होना चाहिए, उसमे ग्रह विसर्जन के भाव सन्निहित होने चाहिए। जैनेन्द्र धर्म मे तप अथवा काया-क्लेश को मोक्ष-प्राप्ति का मार्ग माना गया है। उनकी धारणा हे कि शरीर को अधिक-से-अधिक कष्ट देकर व्यक्ति इन्द्रियो को सयमित कर लेता है, उसकी सासारिक विषयो मे वासना नही रहती। जैनेन्द्र के अनुसार हमारा ध्यान, जो त्याग किया है, उसकी ओर न केन्द्रित होकर, जिसे प्राप्त किया है, उस ओर केन्द्रित होना चाहिए । शरीर व्यक्ति की सम्पत्ति नही है, उसे समष्टि की सेवा मे रत होना चाहिए । धर्म सामाजिक कृत्य है। जैनेन्द्र के अनुसार जो लोग ससार से विरक्त होकर धार्मिक होने का प्रयास करते है, वह उनका ढोग है। ____ जैनेन्द्र के अनुसार काया-क्लेश के द्वारा हम अपनी आत्मा के रस को सुखा देते है। बूद का अस्तित्व समुद्र की अपेक्षा मे ही सम्भव है। समुद्र से पृथक् होकर उसका अस्तित्व स्थिर रही रह सकता । जैनेन्द्र के अनुसार जैन धर्म मे 'तप' ही कैवल्य प्राप्ति का मार्ग है। महावीर स्वामी ने तप द्वारा कैवल्य गति प्राप्त की थी, किन्तु वे तपस्या के बाद स्वय के न रहकर, समष्टि मानव बन गये थे। वे एक महान विभूति थे । वे अपवाद है । सामान्यत कायिक तपश्चर्या अह के पोषण में सहायक होती है । 'बाहुबली' मे बाहुबली अपने तपश्चर्या-काल मे ससार से विरक्त होकर जिन वन मे काया को क्लेश दे रहे थे। किन्तु व्यक्ति की महानता उसके ससार के प्रति सुगम होने मे है, ससार उससे लाभान्वित हो सके यही उसका धर्म है। यही कारण है कि जैनेन्द्र ने 'बाहुबली' को मानव धर्मी बनाने के हेतु उसे तपस्या से विमुख कर जनहित की ओर केन्द्रित किया है। तपस्या से मुक्त होकर वे मानव हो जाते है। १ जैनेन्द्रकुमार 'इतस्तत' दिल्ली १६६२, पृ० १६६ । 'काया क्लेश की उग्रता को जब तपस्या और साधन माना जाता है तो उसके नीचे धारणा यही है कि व्यक्ति स्वय अपना है, वह अपने को सुखा सकता, गला सकता है, मार सकता है, वह स्वय मे अपने को मुक्त कर सकता है। शेष अन्य पर है, वह स्वय स्वय है। यह एकान्तिक धारणा व्यक्ति को अपने सदर्भ से तोड देती है।' 'मैं सब के प्रति सदा सुप्राप्त होने की स्थिति में अब रहूंगा." बाहुबली ने निर्मल कैवल्य पाया था। ग्रन्थिया सब खल गई थी। अब उन्हे किस ओर से बद रहने की आवश्यकता थी? वे चहु ओर खुले सब के प्रति सुगम रहने लगे थे।' --'बाहुबली', पृ० १७६ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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