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________________ १०८ जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन प्रयास किया है।' 'अनन्तर' मे शान्ति धाम की स्थापना के हेतु सहायता, अमीरो के खजाने से प्राप्त होती है। जैनेन्द्र धार्मिक सस्थाओ अथवा अन्य जन हितकारी सस्थाओ के हेतु प्राप्त होने वाले धन के मूल मे आस्था के अभाव अथवा अविनय को नही स्वीकार करते, उनके अनुसार दबाव अथवा गर्व की भावना से दिया गया धन वार्मिकता पर आघात करता है। वस्तुत जैनेन्द्र के अनुसार अपरिग्रह धम-नीति का अनिवार्य अग है। अपरिग्रही आचरण द्वारा हमे जीवन के सत्य का बोध हो सकता है । ससार मे कोई कुछ लेकर नही पाता और न कुछ साथ लेकर जा सकता है । वस्तु या धन के मग्रह मे व्यक्ति का मै प्रबल हो उठता है । 'यह मेरा हे', 'यह तेरा है' यही भावना सघर्ष की प्रेरक बनती है। जैनेन्द्र ने व्यक्ति की प्रात्यात्मिक चेतना के लिए अपरिग्रह को गावश्यक माना है । अपरिग्रह द्वारा हम बिना रक्त क्राति के साम्यवाद की स्थापना कर सकते है। जेनेन्द्र के अनुसार ससार मिथ्या है, मानव-शरीर नश्वर है । प्रत सचय की प्रवृत्ति निरर्थक ही सिद्ध होती है। अपार धनराशि के होते हुए व्यक्ति स्वय को उस समस्त राशि मे फैता नही मकता । धन का गर्व उसके अह को फुला सकता है किन्तु शरीर तो सीमित ही रहता है। जैनेन्द्र जीवन को तत्वज्ञानी के सदृश्य समझने का प्रयास करते है। उनकी दृष्टि मे परिग्रह परहित मे सन्निहित होकर ही सार्थक है, अन्यथा उसका कोई महत्व नहीं है।' १ 'अनन्तर'--'आप लोग सार्वजनिक पैसा रखते है, जिसमे मेरा हक नही पहचता और इसलिए पैसा मुझे पास लेना पडता है।', पृ० १४१ ।। २ 'रुपया जिसके पास गया उसका है । जी नही, समाज का है और धन वाले सिर्फ खजाची है कि आज जो सेवक है उनके हुक्म पर रुपया देते रहे।' --'अनन्तर', पृ० १६१ । ३ 'अनन्तर', पृ० १६० ।। ४ ‘पदार्थों को बटोर कर उनके बीच हमने रुकना चाहा, यही हमारी भूल है। क्या कोई कभी रुक सका हे ?" --जैनेन्द्र 'प्रतिनिधि कहानिया', पृ० २३४ । ५ 'जिसके पास सब कुछ है, वही उस सब जो कुछ को छोडकर दो हाथ भर जगह ही बस अपना सका है। बिछी खाट पर गृहपति का अस्तित्व कितने सक्षेपस्थ में समाप्त मालूम होता है। बाकी जो कुछ है सो उसका होने के लिए नहीं है बाकी सब कुछ उससे पराया है। उसकी निजता इसमे आगे नही है ।---जैनेन्द्र ‘वह अनुभव' (जैनेन्द्र की कहानिया), पृ० १२७ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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