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________________ } ( ४७ ) 'जी सत्र नीथों या जीवन की श्रेणियों को पार करके सिट जिन पर पहुंच कर सर्वन और पूर्ण हो गया है। यह मतभेद है जो जैनियों और संसारी मन वालों में पाया जाता है। जैनी मन वाले हैं, किन्तु वह मतवाले ( मदवाले ) ओर उन्मच नहीं है। फीर साहब कहते हैं: साधू ऐसा चाहिये साचो कहे पनाथ । ma क टूटे चाएं जुडे, चिन पड़े भ्रम म जाय । कूटको पांच नदीं होते । लाख कोई उसकी पुष्टि करे, करता रहे। वह कभी खड़ा नही हो सका । यह सब कोई जानता है कि सत्य आधार है । यदि सत्य का आधार न हा तो भूट नहीं ठहर सक्ता । सत्ग के लिए लगाव लपेट, युक्ति, प्रामण और किसी की सहायता आवश्यक नहीं है। वह सर्वाधार होता हुआ निराधार है । वह स्वयम् आप अपना आधार है । वह अपने प्रकारा में श्राप स्वप्रकाश रहता है। सांच को आंच नहीं ! सांच दम्भ, कपट और पाखंड नहीं। वह तो सदा खच है । भूँठको इनका सहारा हूँढना पड़ता है । और वह निश्चल होता है। जैनी नेल के खौलते हुए कढ़ाहों में मम किये गये -उनके साथ प्रत्याचार किया गया ! किन्तु क्या हुआ ? उनका सिद्धान्त तो जैसा हैं पैसा ही चला रहा है । इन अत्याचार करने वालों में ही से ऐसे लोग बहुधा पेसे निकलते रहते हैं जो सशय और विपर्व के वशीभूत रहते हैं श्रीर रातदिन बक २ झ २ करते
SR No.010352
Book TitleJain Dharm Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivvratlal Varmman
PublisherVeer Karyalaya Bijnaur
Publication Year
Total Pages99
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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