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________________ ( ४६ ) 9 इस सत्य के ग्रहण करने से मनुष्य को अभयपद की प्राप्ति होती है । इस के ग्रहण किये बिना अभय होना दुर्लभ है । सचाई से सरलता, मृदुता और सहजना होती है । सत्य अथवा मैं खीचतान करना पड़ता है और वह फिर भी झूठ सिद्ध नही होता । मिथ्या कपोल कलित और झूठ बोलते रहने से मनुष्य की सरलता खो जाती है वह हठधर्मी और पक्षपाती वन जाता है । वस्तु यथार्थ तो है नहीं । इस भाव का अङ्कुर उल के मन में जमा रहता है, जो कभी दूर नहीं होता । श्रौर लाख जतन करने पर भी उस में दृढ़ता नहीं श्राती । ! यह कारण है कि सत्य के धारण करने वाले चिड़चिड़े क्रोधी और अभिमानी हो जाते हैं । और अनर्थ करने पर तुल जाते हैं । दृष्टि को पसार कर देखो। जिन्हें जगत् ईश्वरवादी कहता है और जो हठ से कल्पित ईश्वर के पद का ग्रहण करते है, प्रायः वही 'खूनखराबा और मारधाड़ करते रहते हैं और जो उनका मतानुयायी नहीं है वह उससे घृणा करते और सताते हैं। यह काम तो साधारण नास्तिक भी नहीं करता, क्योंकि जिस का इसे निश्चय नहीं है अथवा वह समझ नहींरखता उसे न ग्रहण करता और न मानता है इस श्रंग में वह कम से कम सच्चा है और उस में वह हम नहीं श्राती जो कल्पित ईश्वरवादियों में पाई जाती है । जैनी नास्तिक, सत्यवादी और सत्यवाही हैं । वह ईश्वरपद को मानते है । परन्तु उनके यहां उस ईश्वर की मानता है •
SR No.010352
Book TitleJain Dharm Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivvratlal Varmman
PublisherVeer Karyalaya Bijnaur
Publication Year
Total Pages99
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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