SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ३२ ) रहता है। मद (अहंकार) लाखों तरह का है । राजमद, धनमद, विद्यामद, कुलमद, जातिमद, धर्ममद, यौवनमद, देहमद देशमत्र: वाणीमद, विचारमद- इत्यादि इत्यादि । इनमें से जवतक एकनी रहेगा, तबतक मनुष्य और किसी को अपने समान न समझेगा और उसमें दया न श्रायगी । मनुष्य किसी वाद का घमण्ड करे ? यहां जा है वह नाशवान है ! नाशवान पदार्थ पर इतराना विचारशील पुरुषों का काम नहीं है। संसार में जिसे देखिये वही किसी न किसी घमंड में रहता है । यह बहुत बड़ा दोष है । और दोषतो दवसी जाते हैं और दवे रहते हैं, यह जब देखो उभरा ही रहता है । इसकी गति अति सूक्ष्म है । कभी २ इसका पताभी पाना महा कटिन है और जिसके हृदय में यह वसंता है उसकी दृष्टि प्रायः अवगुण ही पर पड़ती है - दूसरों के गुण पर नहीं जाती । और यह संसार में दोष दृष्टि ही की कमाई में लगा रहता है और नानाप्रकार के दुःख भोगता है। कबीरजी ला० कहते हैं: 1 "मीठो बानी वोलिये, हम् आनिषे नाहि । तेश प्रीतम तुझमें, वेडी भी तुझ माहि ॥ J जिसमें मार्दव का गुण नहीं है । वह अपना सर्वस्त्र नाश कर देता है और फिर भी घमंड को नहीं छोड़ता । हानि पर हानि होती रहती है । तिसपर भी इसकी श्राँख नहीं खुलती । धोर देढ़े रास्ते में पड़ा हुआ, यह सीधे रास्ते पर नहीं श्राता । J
SR No.010352
Book TitleJain Dharm Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivvratlal Varmman
PublisherVeer Karyalaya Bijnaur
Publication Year
Total Pages99
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy