SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ३१ ) [-] मार्दव ! मार्दव जहां तक मैं समझता हूँ प्राकृत भाषा का शब्द है। यह संस्कृत शब्द 'मृदु' अथवा 'मद' से निकला है, जिसका रूढ़ि अर्थ मिलना है। मृदुलभाव-कोमलभाव-और नर्मस्वभाव को मार्दव कहते हैं। ____ मार्दव मानकयाय का उपशम है। जबतक मनके अन्दर मानका संस्कार किञ्चित् मात्र भी है, तवतक उसके लिये __ ससार में कुशल नहीं है। अहंकारी जीव माता-पिता, देव, गुरु और आचार्य से भी यह इच्छा रखते है कि उनका सम्मान किया जाय । आये थे सरसे अहकार उतारने के लिये और उसे जिनके सामने मस्तक नवाना है, और जिनकी शरणागत होकर अहंकार शमन और मान मर्दन करना है, उन्हींके सामने अहंकारी वनकर अनुचित करतव कर बैठते __ है ! इस भूल का कहीं ठिकाना भी हैं, जैनधर्म में इसको मान कपाय बोलते हैं। यह जड़ है संसार के दुःखों की:' यह मन मता है-गुरु मता नहीं है-ऐसे भाव को मन का मद __ कहते हैं । मार्दव का तात्पर्य नम्रभाव, और विनय सिखाना है। जिसमें मार्दवभाव नहीं होता, वह अपने को ऊँचा और दसरों को नीचां समझता है और अहंकार के नशे में घर
SR No.010352
Book TitleJain Dharm Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivvratlal Varmman
PublisherVeer Karyalaya Bijnaur
Publication Year
Total Pages99
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy