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________________ । १५ ) वह अबतक बंधा हुआ था सदैव के लिए छूट जाते हैं। न उस में काम है,न क्रोध है. न मोह है, न श्राहकार है, न उससे किसी को घाव है-न लपट है- श्राशा है, न निराशा हैयह निर्वाण है। यह एक ऐसी प्रानन्ददायक अवस्था है जिसे जैनी परिमापा मे सिद्धपद' बोलते हैं । बहुत कम ऐसे मनुष्य है जो इस की समझ रखते है। बहुधा तो इसे मिट फर समाप्त हो जाना ही समझ रहे हैं। यह जीव की असली अवस्था, असली रूप और वास्तविफ दशा है। जीव का अजीव केसाथ अनादिकाल से सम्बध है। उस में अजीव का संग दोप घुस गया है; वह है कुछ, और इन के मेल प्रभाव से कुछ का कुछ करता रहता है, और शब्द, स्पर्श रूप, रस, गन्धका पात्र बना हुआ इन्हीं के व्यवहार को सप कुछ समझ बैठा है, अपनी असलियत को खो बैठा और जीव के अजीव मेल का रूप बन गया। यह किस तरह सम्भव है ? इस का उत्तर केवल एक शब्द अहिंसा है। इस हिंसा धर्म का पालन करने से उस में जो जो अजीवपने संस्कार प्रवेश हो गये हैं उन की आप ही जड़ कटती हुई चली जा रही है। रोक थाम होती रहेगी और जव पूर्णरीति से यह दर हा जायंगे तव जीव अपने स्वप्रकाश में आप स्वयम् प्रकाशवान् और अपनी पूर्ण अस्ति में आप स्वयं दिव्यमान हो रहेगा। यह निर्वाण है, यह सिद्धपद है, यह पूर्ण जीवन है और इसी का दूसरा नाम तीर्थंकरपणा है। अहिंसा दया का कानून है। इस संसार में जोधेचैनी व्या
SR No.010352
Book TitleJain Dharm Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivvratlal Varmman
PublisherVeer Karyalaya Bijnaur
Publication Year
Total Pages99
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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