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________________ 136] जैनधर्ममें दैव और पुरुषार्थ / / जब प्राप्त होजाता है तब ये आत्मतबके मननके अभ्यामका पुस्पार्थ करता है। ___ पुरुषार्थ करते करते जब अनतानुसन्धी कपाय और मिथ्यात्वका उदय उपशम होजाता है अर्थात् दब जाता है नर उपगम सम्यक्त प्राप्त होजाता है। इसका काल अन्तर्मुहूर्त है पीछे छूट भी सकता है व क्षयोपशम मम्यक्तमे बदल सक्ता है. टनपर भी पुन ये प्राप्त होजाता है। इस सम्यक्तके होते हुये मोक्षपुरुषार्थकी कुंजी हाथ आ जाती है। ये उपशम सम्यक्त चौथ गुणस्थानसे 11 वें तक रह सकता है। 7 वे गुणस्थानमे क्षयोपशम सम्यक्तसे जो उपगम सन्यक्त होता है उसको द्विनीयोपगम कहते है। उपशम चारित्र-चारित्रमोहनीय कर्मक उपगमसे प्रगट होता है। उपगम श्रेणीके 8 वे वें 103 113 गुणम्यानम यह रहता है। इसकी स्थिति भी अंतर्मुहुर्त है। 11 वसे गिरकर नीचे 7 वें तक आ जाता है। जब कपायका उदय हो जाता है तो उपगम चारित्र नहीं रहता। आठों कमामेसे मुरन्यनासे मोहनीय कर्मम उपशम भाव होता है। 2 क्षयोपशमिक भाव-ये 18 प्रकारका होता है - 4 जान-मतिज्ञान श्रुतनान, अवधिज्ञान. मन पर्यय जान / 3 अज्ञान-कुमति कुश्रुति, कुअवधिमिथ्यात्व महित ज्ञानको कुनान कहते है, सम्यक्त सहितको ज्ञान कहत है। माधारण जीवोंको कुमति कुश्रुति दो ज्ञान होते है। इन्हीं दोनो ज्ञानों के पुरुपार्थ करनेसे जव सम्यग्दर्शनका उदय होता है तब वे ही ज्ञान मति व श्रुत होजाते है,
SR No.010351
Book TitleJain Dharm me Dev aur Purusharth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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