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________________ .. arwmernamurvars............. ८८] जैनधर्ममें दैव और पुरुषार्थ । शुक्लध्यान रहता है। यहींपर दूसरा शुक्लध्यान होजाता है. जिसके प्रभावसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय तीन घातीय काँका नाग हो जाता है, तब चारों घातीयसे रहित होकर केवली याहन्न हो सर्वन केवली जिन नाम पाता है। (१३) सयोगकेवली जिन-अरहन्त परमात्मा होकर धर्मोपदेशका प्रकाश व विहार होता है। आत्मा सर्वन, वीतगग, हितोपदेशी कहलाता है। अन्तमें तीसरा शुलभ्यान होता है तब योग सूक्ष्म रहता है। (१४) अयोग केवली जिन-योगरहित आहन्त परमात्मा बहुत अल्प समयमे चौथे शुक्लध्यानके द्वारा शेष चार अघातीय कर्मोका नाश करके मुक्त होकर सर्व शरीरोंसे रहित सिद्ध परमात्मा हो जाता है । गुणस्थानोंसे बाहर पूर्ण कृतकृत्य होजाता है। आठवें गुणस्थानले दो श्रेणिया है (१) उपशम श्रेणी जहां चारित्र मोहनीयका उपशम होता है, क्षय नहीं होता है। उसके गुणस्थान चार हैं-आठ, नौ, दश, म्यारह । उपशात मोहसे साधु फिर नीचे आता है, सातवें तक या और भी नीचे आ सकता है। क्योकि अन्तर्मुहूर्त पीछे कषायका उदय होजाता है। (२) क्षपश्रेणी जहा चारित्र मोहनीयका क्षय किया जाता है। जो इस श्रेणीपर चढता है वह उसी शरीरसे मुक्त होता है। उसके भी चार गुणम्थान हैं। आठ, नौ, दश, बारह । उस श्रेणीपर चढनेवाला ग्यारहको लांच जाता है। क्षीणमोह होकर फिर केवली अरहन्त होजाता है । 16. ' गुणस्थानोंमें प्रकृति चन्ध-१४८ कर्म प्रकृतियोंमेसे,बंधके
SR No.010351
Book TitleJain Dharm me Dev aur Purusharth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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