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________________ जैनधर्ममें देव और पुरुषार्थ । ↓ ८४ ] 154 एकत्र करते हैं व स्वयं ही उन कर्मों का फल दुःख सुख भोग लेते हैं। किसी इश्वर के बीच में पहनेकी जरूरत नहीं है। हम ही कर्मो के कर्ता हैं व हम ही उनके फलके भोक्ता है । यह हमारा विभाव मय कार्य है, स्वभाव नहीं । स्वभावसे हम पुण्य पाप कर्मोके न कर्ता हैं न उनके फलके भोक्ता हैं । ܚܝܠܠܠ ܬܝ 1 ܬܚܬܚܬ १४८ कर्म प्रकृतियां हम गिना चुके है, इनका बंध अधिक व कम सख्यामे नाना प्रकारके जीवोंके होता है । जैसा २ पुरुषार्थी जीव कषायका बल घटाकर वीतराग था शात परिणामी होता जाता है वैसे वैसे कम संख्या में कर्मप्रकृतिएँ बंधती है। संसारी जीन चौदह श्रेणियों या दरजोंके द्वारा उन्नति करते हुए दैव या कर्म के बन्धसे छूटकर मुक्त या शुद्ध चौदह गुणस्थान | होते है । जैसे जैसे दर्जा बढता है, कपायकी कालस या मलीनता कम होती है वैसे वैसे कम संख्याकी कर्म प्रकृतियां बंधती है। किस गुणस्थानमे कितनी प्रकृतियोका बन्ध होता है, इस बात के जाननेके लिये इनका जानना जरूरी । इन आत्मोन्नतिकी श्रेणियोंके नाम इस क्रमसे है (१) मिथ्यात्व, (२) सासादन, (३) मिश्र, (४) अविरत सम्यक्त, (५) देश विरत, (६) प्रमत्तविरत, (७) अप्रमत्तविरत, (८) अपूर्वकरण, (९) अनिवृत्तिकरण, (१०) सूक्ष्मसापराय, (११) उपशांतमोह, (१२) क्षीणमोह, (१३) सयोगकेवली जिन, (१४) अयोग - केवली जिन । I इनमें से देव और नारकियोंमें पहले चार, तिर्यचोंमे पहले पांच,
SR No.010351
Book TitleJain Dharm me Dev aur Purusharth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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