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________________ ७८] जैनधर्ममें देव और पुरुषार्थ । ही होता है । सम्यक्त होनेपर मिथ्यात्वकं तीन विभाग होत हैं। तक ८४-२४२ पाप प्रकृति रह जायगी। चार प्रकारका चंध____ मूल बन्धके निमित्त कारण अशुद्ध आत्माके योग व कपायमाक हैं। इनहीसे चार प्रकारका वंघ होता हे--प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभाग। इन चारोंका वन्ध एक साथ होता है। कर्मवर्गणाएं कर्मबंधकी उपादान कारण हैं, उनमें ज्ञानावरणादि स्वभाव पडना प्रकृतिबन्ध है, हरएक प्रकृतिको कितनी वाणाएं बन्धी संख्या पडना प्रदेशवन्ध है। वे बन्धे कर्म कबतक आत्माको विलकुल न छोडेंगे उनकी मर्यादा पडना स्थितिबन्ध है । उनका फल तीव या मंद पडना अनुमागवन्ध है। जब काय, या वचन या मन तीनोंमेसे कोई वर्तन करता है तब आत्माके प्रदेश सकंप होते हैं। इस सकम्पको द्रव्ययोग कहते हैं तब ही आत्माके भीतर आकर्षग शक्ति कर्म व नोकर्मवर्गणाओंको खींच लेती है, यह शक्ति भावयोग है। योगशक्ति प्रबल होनसे बहुत अधिक कर्म व नोकवर्गणाएं खिंचेगी। योगशक्ति निर्बल होतसे थोडी नोकर्मवर्गणाएं खिंचेंगी। सैनी पञ्चन्द्रिय नैसे मानव आहारक. तैजस, कार्मण, भापा, मन पांच प्रकार वळणाओंको हर समय ग्रहण करता है । कार्मणवर्गणाको कर्म शेष चारको नोकर्भ कहते हैं, योगोंकी विशेषतासे ही प्रकृति व प्रदेशबन्ध होते हैं। कषायोंकी विशेषतासे स्थिति, अनुभागबन्ध होते हैं। स्थितिबन्धका नियम–तिर्थच, मनुष्य, देव आयु इन तीन
SR No.010351
Book TitleJain Dharm me Dev aur Purusharth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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