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________________ अध्याय तीसरा। [७७ पुग्य प्रकृतियोंके नाम। १ सातावंदनीय. : आयु-तिर्यच. मनुष्य, देव, १ उच्च गोत्र। ६३ नामकर्मकी-मनुप्यति मनुष्य, गत्यानुपूर्वी, देवगति, देवगत्यानुराग गद्रियजाति. पाचशेरीर, पांच बंधनं, पांच संघात, तीन अगोगा २० शुभ म्पीरसँगन्धवर्ग, समचतुहर्मस्थान. वज्रवृषभनाराच संहननें, अगुरु घु, परघात, उच्छ्वास, आतप उद्योत, प्रशस्त विहीयोगति, वर्ग बाद, पर्यंत. प्रत्येक शरीर. स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यर कीर्ति. निर्माण, तीर्थक ६८ ।। २० वांदिक म्यानपर ४ गिननसे व ५ बन्धन ५ संघातको ५ गीरमें गर्मित करनेसे ६८-२६-१२ पुण्य प्रकृतियें होती है। पाप प्रकृतिम ४७ घातीय (५ जा०+05०+२८ मो०+५ अंतराय, नरकयु, असातावंदनीय, नीच गोत्र. ५ नामकर्मकी-नरक गति, नरकात्यानुर्वी, तियचगति तिचेंगत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रिय आदि चार जाति, न्यग्रोध परिमंडलादि पांच संम्थान. वर्धनाराचादि पांच सहनन, २० अशुभवणादि. उपघात. अगन्तविहायोगति, स्थावा, सूम, अर्पयामि, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुम्बर, अनादेय, अयंगरकीर्ति-१००। २० वर्णादिक स्थानबर लेनेसे १००-१६८८४रहेंगी। १७ घातीयमंस मिथ मोहनीय, सम्यक्त मोहनीय दो घट जाएंगी। क्योंकि इनकाय नहीं होता है। बन्ध मिथ्यात्व दर्शन मोहनीयका
SR No.010351
Book TitleJain Dharm me Dev aur Purusharth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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