SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 86
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्म का प्राण विरोध करके अपनी सौम्य तपस्या से भाई भरत पर ऐसा प्रभाव डाला कि जिससे भरत ने न केवल सुन्दरी के साथ विवाह करने का विचार ही छोड़ा, बल्कि वह उसका भक्त बन गया। ऋग्वेद के यमीसूक्त मे भाई यम ने भगिनी यमी की लग्न-माग को अस्वीकार किया, जबकि भगिनी सुन्दरी ने भाई भरत की लग्नमाग को तपस्या मे परिणत कर दिया और फलत. भाई-बहन के लग्न की प्रतिष्ठित प्रथा नामशेष हो गई। ___ ऋषभ के भरत और वाहुबली नामक पुत्रो मे राज्य के निमित्त भयानक युद्ध शुरू हुआ। अन्त मे द्वन्द्व युद्ध का फैसला हुआ। भरत का प्रचण्ड प्रहार निष्फल गया। जब बाहुबली की बारी आई और समर्थतर बाहुबली को जान पडा कि मेरे मुष्टिप्रहार से भरत की अवश्य दुर्दशा होगी तब उसने उस भ्रातृविजयाभिमुख क्षण को आत्मविजय मे बदल दिया । यह सोचकर कि राज्य के निमित्त लड़ाई मे विजय पाने और वैर-प्रतिवैर तथा कुटुम्ब-कलह के बीज बोने की अपेक्षा सच्ची विजय अहकार और तृष्णाजय मे ही है, उसने अपने बाहुबल को क्रोध और अभिमान पर ही जमाया और अवैर से वैर के प्रतिकार का जीवन्त दृष्टात स्थापित किया । फल यह हुआ कि अन्त मे भरत का भी लोभ तथा गर्व खर्व हुआ। एक समय था जबकि केवल क्षत्रियो मे ही नही पर सभी वर्गों मे मास खाने की प्रथा थी। नित्यप्रति के भोजन, सामाजिक उत्सव, धार्मिक अनुष्ठान के अवसरो पर पशु-पक्षियो का वध ऐसा ही प्रचलित और प्रतिष्ठित था जैसा आज नारियलो और फलो का चढाना । उस युग मे यदुनन्दन नेमिकुमार ने एक अजीब कदम उठाया। उन्होने अपनी शादी पर भोजन के लिये कतल किये जानेवाले निर्दोष पशु-पक्षियो की आर्त मक वाणी से सहसा पिघलकर निश्चय किया कि वे ऐसी शादी न करेगे जिसमे अनावश्यक और निर्दोष पशु-पक्षियों का वध होता हो। उस गम्भीर निश्चय के साथ वे सबकी सुनी-अनसुनी करके बारात से शीघ्र वापस लौट आए। द्वारका से सीधे गिरनार पर्वत पर जाकर उन्होने तपस्या की। कौमारवय मे राजपुत्री का त्याग और ध्यान-तपस्या का मार्ग अपनाकर उन्होने उस चिर-प्रचलित पशु-पक्षीवध की प्रथा पर आत्मदृष्टात से इतना सख्त प्रहार किया जिससे गुजरात-भर मे और गुजरात के प्रभाववाले दूसरे प्रान्तों
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy