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________________ जैनधर्म का प्राण जैन-विचारसरणी का एक मौलिक सिद्धान्त यह है कि प्रत्येक वस्तु का विचार अधिकाधिक पहलुओ और अधिकाधिक दृष्टिकोणो से करना और विवादास्पद विषय मे बिलकुल अपने विरोधी पक्ष के अभिप्राय को भी उतनी ही सहानुभूति से समझने का प्रयत्न करना जितनी कि सहानुभूति अपने पक्ष की ओर हो, और अन्त मे समन्वय पर ही जीवन-व्यवहार का फैसला करना। यो तो यह सिद्धान्त सभी विचारको के जीवन में एक या दूसरे रूप से काम करता ही रहता है, इसके सिवाय प्रजाजीवन न तो व्यवस्थित बन सकता है और न शान्तिलाभ कर सकता है, पर जैन विचारकों ने इस सिद्धान्त की इतनी अधिक चर्चा की है और इसपर इतना अधिक जोर दिया है कि उससे कट्टर-से-कट्टर विरोधी संप्रदायो को भी कुछ-न-कुछ प्रेरणा मिलती ही रही है। रामानुज का विशिष्टाद्वैत उपनिषद् की भूमिका के ऊपर अनेकान्तवाद ही तो है । जैन-परंपरा के आदर्श जैन-सस्कृति के हृदय को समझने के लिए हमे थोडे-से उन आदर्शों का परिचय करना होगा जो पहले से आज तक जैन-परपरा मे एकसे मान्य है और पूजे जाते है। सबसे पुराना आदर्श जैन-परपरा के सामने ऋषभदेव और उनके परिवार का है। ऋषभदेव ने अपने जीवन का सबसे बड़ा भाग उन जवाबदेहियो को बुद्धिपूर्वक अदा करने मे बिताया जो प्रजापालन की जिम्मेदारी के साथ उनपर आ पड़ी थी। उन्होने उस समय के बिलकुल अपढ़ लोगो को लिखना-पढ़ना सिखाया, कुछ काम-धन्धा न जाननेवाले वनचरों को उन्होने खेती-बाडी तथा बढई, कुम्हार आदि के जीवनोपयोगी धन्धे सिखाये, आपस मे कैसे बरतना, कैसे नियमो का पालन करना यह भी सिखाया। जब उनको महसूस हुआ कि अब बडा पुत्र भरत प्रजाशासन की सब जवाबदेहियो को निबाह लेगा तब उसे राज्य-भार सौपकर गहरे आध्यात्मिक प्रश्नो की छानबीन के लिए उत्कट तपस्वी होकर वे घर से निकल पड़े। ऋषभदेव की दो पुत्रियाँ ब्राह्मी और सुन्दरी नाम की थी। उस जमाने में भाई-बहन के बीच शादी की प्रथा प्रचलित थी। सुन्दरी ने इस प्रथा का
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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