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________________ :४: जैन संस्कृति का हृदय संस्कृति का स्रोत सस्कृति का स्रोत नदी के ऐसे प्रवाह के समान है, जो अपने प्रभवस्थान से अन्त तक अनेक दूसरे छोटे-मोटे जल-स्रोतो से मिश्रित, परिवर्धित और परिवर्तित होकर अनेक दूसरे मिश्रणो से भी युक्त होता रहता है और उद्गम-स्थान में पाए जानेवाले रूप, स्पर्श, गन्ध तथा स्वाद आदि मे कुछन-कुछ परिवर्तन भी प्राप्त करता रहता है । जैन कहलानेवाली सस्कृति भी उस सस्कृति-सामान्य के नियम का अपवाद नही है । जिस सस्कृति को आज हम जैन सस्कृति के नाम से पहचानते है, उसके सर्वप्रथम आविर्भावक कौन थे और उनसे वह पहले-पहल किस स्वरूप में उद्गत हुई इसका पूरापूरा सही वर्णन करना इतिहास की सीमा के बाहर है, फिर भी उस पुरातन प्रवाह का जो और जैसा स्रोत हमारे सामने है तथा वह जिन आधारो के पट पर बहता चला आया है, उस स्रोत तथा उन साधनों के ऊपर विचार करते हुए हम जैन सस्कृति का हृदय थोड़ा-बहुत पहचान याते है। जैन संस्कृति के दो रूप जैन सस्कृति के भी, दूसरी सस्कृतियो की तरह, दो रूप है : एक बाह्य और दूसरा आन्तर । बाह्य रूप वह है जिसे उस सस्कृति के अलावा दूसरे लोग भी आख, कान आदि बाह्य इन्द्रियों से जान सकते है । पर सस्कृति का आन्तर स्वरूप ऐसा नही होता, क्योकि किसी भी सस्कृति के आन्तर स्वरूप का साक्षात् आकलन तो सिर्फ उसी को होता है, जो उसे अपने जीवन मे तन्मय कर ले। दूसरे लोग उसे जानना चाहे तो साक्षात् दर्शन कर नही सकते, पर उस आन्तर संस्कृतिमय जीवन बितानेवाले पुरुष या
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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