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________________ जैनधर्म का प्राण ५२ पिटकों में तथा उनकी अट्ठकथाओ मे चतुर्याम का जो अर्थ किया गया है वह गलत तथा अस्पष्ट है ।' ऐसा क्यो हुआ होगा ? -- यह प्रश्न आए बिना नही रहता । निर्ग्रन्थ-परपरा जैसी अपनी पड़ोसी समकालीन और अति प्रसिद्ध परपरा के चार यमो के बारे मे बौद्ध ग्रन्थकार इतने अनजान हो या अस्पष्ट हो यह देखकर शुरू-शुरू मे आश्चर्य होता है, पर हम जब साम्प्रदायक स्थिति पर विचार करते है तब वह अचरज गायव हो जाता है । हरएक सम्प्रदाय ने दूसरे के प्रति पूरा न्याय नही किया है । यह भी सम्भव है कि मूल मे बुद्ध तथा उनके समकालीन शिष्य चतुर्याम का पूरा और सच्चा अर्थ जानते हो । बह अर्थ सर्वत्र प्रसिद्ध भी था, इसलिए उन्होने उसको बतलाने की आवश्यकता समझी न हो, पर पिटको की ज्यो- ज्यो सकलना होती गई त्यो त्यों चतुर्याम का अर्थ स्पष्ट करने की आवश्यकता मालूम हुई । किसी बौद्ध भिक्षु ने कल्पना से उसके अर्थ की पूर्ति की, वही आगे ज्यो-कीत्यों पिटको मे चली आई और किसीने यह नही सोचा कि चतुर्याम का यह अर्थ निर्ग्रन्थ- परपरा को सम्मत है या नही ? बौद्धो के बारे मे भी ऐसा विपर्यास जैनो के द्वारा हुआ कही-कही देखा जाता है । किसी सम्प्रदाय के मन्तव्य का पूर्ण सच्चा स्वरूप तो उसके ग्रन्थो और उसकी परपरा से जाना जा सकता है। (द० औ० चि० ख० २, पृ० ५० ५९, ९७ - १०० ) १. दीघ० सु० २ । दीघ० सुमगला, पृ० १६७ ॥ २. सूत्रकृताग १. २. २. २४-२८ ।
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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