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________________ जैनधर्म का प्राण सप्रदाय के आचार-विचारो की समालोचना करते है तब निर्ग्रन्थ सप्रदाय मे प्रतिष्ठित ऐसे तप के ऊपर तीन प्रहार करते है। और यही कारण है कि निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय के आचार और विचार का ठीक-ठीक उसी सम्प्रदाय की परिभाषा मे वर्णन करके वे उसका प्रतिवाद करते है। महावीर और बुद्ध दोनो का उपदेशकाल अमुक समय तक अवश्य ही एक पडता है । इतना ही नहीं, पर वे दोनो अनेक स्थानो मे बिना मिले भी साथ-साथ विचरते है। इसलिए हम यह भी देखते है कि पिटको मे 'नातपुत्त निग्गठ' रूप से महावीर का निर्देश आता है। चार यान और बौद्ध संप्रदाय बौद्धपिटकान्तर्गत 'दीघनिकाय' और 'सयुत्तनिकाय' मे निर्ग्रन्थों के महाव्रत की चर्चा आती है। 'दीघनिकाय' के 'सामञफलसुत्त' में श्रेणिक-बिबिसार के पुत्र अजातशत्रु-कुणिक ने ज्ञातपुत्र महावीर के साथ हुई अपनी मुलाकात का वर्णन बुद्ध के समक्ष किया है, जिसमे ज्ञातपुत्र महावीर के मुख से कहलाया है कि निर्ग्रन्थ चतुर्यामसंवर से सयत होता है, ऐसा ही निर्ग्रन्थ यतात्मा और स्थितात्मा होता है। इसी तरह सयत्तनिकाय के 'देवदत्त सयुत्त' मे निक नामक व्यक्ति ज्ञातपुत्र महावीर को लक्ष्य में रखकर बुद्ध के सम्मुख कहता है कि वह ज्ञातपुत्र महावीर दयालु, कुशल और चतुर्यामयुक्त है। इन बौद्ध उल्लेखो के आधार से हम इतना जान सकते है कि खुद बुद्ध के समय मे और उसके बाद भी (बौद्ध पिटकों ने अन्तिम स्वरूप प्राप्त किया तब तक भी) बौद्ध परपरा महावीर को और महावीर के अन्य निम्रन्थो को चतुर्यामयुक्त समझती रही। पाठक यह बात जान ले कि याम का मतलब महाव्रत है, जो योगशास्त्र (२ ३०) के अनुसार यम भी कहलाता है । महावीर की निर्ग्रन्थ-परपरा आज तक पाँच महाव्रतधारी रही है और पाँच महाव्रती रूप से ही शास्त्र में तथा व्यवहार मे प्रसिद्ध है। ऐसी स्थिति में बौद्धग्रन्थो मे महावीर और अन्य निर्ग्रन्थो का चतुर्महाव्रतधारी रूप से जो कथन है उसका क्या अर्थ है ?-यह प्रश्न अपने-आप ही पैदा होता है। १. दीघ० सु० २। २. दीघ० सु० २ । सयुत्तनिकाय Vol. 1, p. 66.
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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