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________________ जैनधर्म का प्राण ३२ गीता रोकती है और शस्त्रयुद्ध का आदेश करती है, जबकि आचारागसूत्र अर्जुन को ऐसा आदेश न करके यही कहेगा कि अगर तुम सचमुच क्षत्रिय वीर हो तो साम्यदृष्टि आने पर हिसक शस्त्रयुद्ध नही कर सकते, बल्कि भैक्ष्यजीवनपूर्वक आध्यात्मिक शत्रु के साथ युद्ध के द्वारा ही सच्चा क्षत्रियत्व सिद्ध कर सकते हो ।' इस कथन की द्योतक भरत - बाहुबली की कथा जैन साहित्य मे प्रसिद्ध है, जिसमे कहा गया है कि सहोदर भरत के द्वारा उग्र प्रहार पाने के बाद बाहुबली ने जब प्रतिकार के लिए हाथ उठाया तभी समभाव की वृत्ति प्रकट हुई । उस वृत्ति के आवेग मे बाहुबली ने भैक्ष्यजीवन स्वीकार किया, पर प्रतिप्रहार करके न तो भरत का बदला चुकाया और न उससे अपना न्यायोचित राज्यभाग लेने की सोची । गाधीजी ने गीता और आचाराग आदि मे प्रतिपादित साम्यभाव को अपने जीवन में यथार्थ रूप से विकसित किया और उसके बल पर कहा कि मानवसहारक युद्ध तो छोडो, पर साम्य या चित्त-शुद्धि के बल पर ही अन्याय के प्रतिकार का मार्ग भी ग्रहण करो । पुराने सन्यास या त्यागी जीवन का ऐसा अर्थविकास गाधीजी ने समाज मे प्रतिष्ठित किया है । साम्यदृष्टि और अनेकान्तवाद जैन परम्परा का साम्यदृष्टि पर इतना अधिक भार है कि उसने साम्यदृष्टि को ही ब्राह्मण परम्परा मे लब्धप्रतिष्ठ ब्रह्म कहकर साम्यदृष्टि - पोषक सारे आचार-विचार को 'ब्रह्मचर्य' - 'बम्भचेराइ' कहा है, जैसाकि बौद्ध परम्परा ने मैत्री आदि भावनाओ को ब्रह्मविहार कहा है । इतना ही नही, पर धम्मपद' और शातिपर्व की तरह जैन ग्रन्थ मे भी समत्व धारण करनेवाले श्रमण को ही ब्राह्मण कहकर श्रमण और ब्राह्मण के बीच का अंतर मिटाने का प्रयत्न किया है । साम्यदृष्टि जैन परम्परा मे मुख्यतया दो प्रकार से व्यक्त हुई है - ( १ ) आचार मे और (२) विचार मे । जैनधर्म का बाह्य आभ्यन्तर, स्थूल २. ब्राह्मणवर्ग २६ । १. आचाराग १.५.३ । ३. उत्तराध्ययन २५ ।
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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