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________________ जैनधर्म का प्राण जैन परम्परा में क्या स्थान है ? जैन श्रुत रूप से प्रसिद्ध द्वादशांगी या चतुर्दश पूर्व मे 'सामाइय'--'सामायिक' का स्थान प्रथम है, जो आचारागसूत्र कहलाता है। जैनधर्म के अतिम तीर्थकर महावीर के आचार-विचार का सीधा और स्पष्ट प्रतिबिम्ब मुख्यतया उसी सूत्र मे देखने को मिलता है। उसमें जो कुछ कहा गया है उस सबमे साम्य, समता या सम पर ही पूर्णतया भार दिया गया है। 'सामाइय' इस प्राकृत या मागधी शब्द का सम्बन्ध साम्य, समता या सम से है। साम्यदृष्टिमूलक और साम्यदृष्टिपोषक जो-जो आचारविचार हो वे सब सामाइय-सामायिक रूप से जैन परम्परा मे स्थान पाते है। जैसे ब्राह्मण परम्परा मे सध्या एक आवश्यक कर्म है वैसे ही जैन परम्परा मे भी गृहस्थ और त्यागी सबके लिए छ आवश्यक कर्म बतलाए है, जिनमे मुख्य सामाइय है। अगर सामाइय न हो तो और कोई आवश्यक सार्थक नहीं है । गृहस्थ या त्यागी अपने-अपने अधिकारानुसार जब-जब धार्मिक जीवन को स्वीकार करता है तब-तब वह 'करेमि भते ! सामाइय' ऐसी प्रतिज्ञा करता है। इसका अर्थ है कि हे भगवन् ! मै समता या समभाव को स्वीकार करता हूँ। इस समता का विशेष स्पष्टीकरण आगे के दूसरे पद मे किया गया है। उसमे कहा है कि मै सावध योग अर्थात् पापव्यापार का यथाशक्ति त्याग करता हूँ। 'सामाइय' की ऐसी प्रतिष्ठा होने के कारण सातवी सदी के सुप्रसिद्ध विद्वान् जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने उस पर विशेषावश्यकभाष्य नामक अतिविस्तृत ग्रन्थ लिखकर बतलाया है कि धर्म के अगभूत श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र ये तीनो ही सामाइय है। सच्ची वीरता के विषय में जैनधर्म, गीता और गांधीजी __ साख्य, योग और भागवत जैसी अन्य परम्पराओं में पूर्वकाल से साम्यदृष्टि की जो प्रतिष्ठा थी उसीका आधार लेकर भगवद्गीताकार ने गीता की रचना की है। यही कारण है कि हम गीता में स्थान-स्थान पर समदर्शी, साम्य, समता जैसे शब्दों के द्वारा साम्यदृष्टि का ही समर्थन पाते है। गीता और आचाराग की साम्यभावना मूल में एक ही है, फिर भी वह परम्पराभेद से अन्यान्य भावनाओं के साथ मिलकर भिन्न हो गई है। अर्जुन को साम्यभावना के प्रबल आवेग के समय भी भक्ष्य जीवन स्वीकार करने से
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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