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________________ १८ जैनधर्म का प्राण समझने का धीरज और सभी पक्षो को सह लेने की उदारता होती है। पन्थ मे ऐसा नही होता। उसमे दृष्टि सत्याभासी होने से वह एक हीऔर वह भी अपने ही-पक्ष को सर्वाशत. सत्य मानकर दूसरी ओर देखनेसमझने की वृत्ति ही नही रखती और विरोधी पक्षो को सह लेने की अथवा उनको समझने की उदारता भी उसमे नही होती। धर्म मे अपना दोष-दर्शन और दूसरो के गुणों का दर्शन मुख्य होता है, जबकि पन्थ मे इससे विपरीत बात होती है। पन्थवाला मनुष्य दूसरो के गुणो की अपेक्षा उनके दोषो को ही खासतौर पर देखा करता है और उन्हीका बखान किया करता है। उसकी दृष्टि मे अपने दोषो की अपेक्षा गुण ही अधिक बसते है और उन्हीकी डुगडुगी वह बजाया करता है, अथवा तो उसकी नज़र मे अपने दोष चढते ही नही। ६ : धर्मगामी अथवा धर्मनिष्ठ मनुष्य भगवान् को अपने भीतर और अपने आसपास देखता है, जिससे भूल या पाप करने पर 'भगवान् देख लेगे' ऐसा भय उसे रहा करता है, वह मन-ही-मन लज्जित होता है; जबकि पन्थगामी मनुष्य मे 'प्रभु वैकुण्ठ मे या मुक्तिस्थान मे रहते है' ऐसी श्रद्धा होती है, जिससे भूल करने पर भगवान् से अपने-आपको जुदा मानकर, मानो कोई जानता ही न हो उस प्रकार, न तो वह किसीसे डरता है और न लज्जित ही होता है। उसे भूल का दुःख महसूस नहीं होता और अनार होता भी है तो पुन भूल न करने के लिए नही। 11' । धर्म मे आधारस्तम्भ चारित्र्य होने से जाति, लिग, आयु, वेश, चिह्न, भाषा तथा दूसरी वैसी बाहरी बातो को स्थान ही नहीं है; जबकि पन्थ में इन्ही बाह्य वस्तुओ का स्थान होता है और इनकी मुख्यता मे चारित्र्य दब जाता है । बहुत बार तो ऐसा भी होता है कि लोगो मे जिसकी प्रतिष्ठा न हो वैसी जाति, वैसे लिग, वैसी उम्र और वैसे वेश अथवा चिह्नवाले में यदि खासा चारित्र्य हो तो भी पंथ मे पड़ा हुआ मनुष्य उसे लक्ष में 'लेता ही नही और बहुत बार तो उसका तिरस्कार भी करता है। • . धर्म मे विश्व ही एकमात्र चौका या विशाल कुटुम्ब है। उसमे दूसरा कोई छोटा-बडा चौका न होने से छूतछात जैसी चीज ही नही होती, और होती है तो वह इतनी ही कि उसमे अपना ही पाप केवल अस्पृश्य लगता
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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