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________________ जैनधर्म का प्राण है। जिस समाज मे इस धर्म का जितने अधिक अशो मे अनुसरण होता हो वह समाज उतने अश मे अधिक अच्छा या सस्कृत होगा। (द० अ० चि० भा० १, पृ० १४४) १३. धर्म और पंथ पहले मे अर्थात् धर्म मे अन्तदर्शन होता है, अतः वह आत्मा के भीतर से आता है और उसीका दर्शन कराता है अथवा उस ओर मनुष्य को मोडता है। जबकि दूसरे मे अर्थात् पथ मे बहिर्दर्शन होता है, वह बाहरी वातावरण और देखादेखी में से ही पैदा होता है । फलतः उसकी दृष्टि बाहर की तरफ लगी रहती है और वह मनुष्य को बाहर की ओर ही देखने में प्रवृत्त रहता है। धर्म गुणजीवी और गुणावलम्बी होने से आत्मा के गुणो पर ही उसका आधार होता है, जबकि पन्थ रूपजीवी और रूपावलम्बी होने से उसका सारा आधार बाहरी रूपरग और ठाटबाट पर होता है। __ पहले मे से एकता और अभेद के भाव उठते है और समानता की ऊर्मिया उछलती है, जबकि दूसरे मे भेद और विषमता की दरारे पड़ती हैं और वे बढती जाती है । फलत पहले मे मनुष्य दूसरे के और अपने बीच रहे हुए भेद को भूलकर अभेद की ओर झुकता है और दूसरे के दु.ख में अपना सुख भूल जाता है । धर्म मे ब्रह्म अर्थात् सच्चे जीवन की झाकी होती है, अत उसकी व्यापकता के आगे मनुष्य को अपना एकाकी रूप अल्प-सा प्रतीत होता है। जबकि पन्थ मे इससे उलटा है। उसमे गुण या वैभव न हो तो भी मनुष्य अपने-आपको दूसरों से बड़ा मानता है और वैसा मनवाने का यत्न भी वह करता है। उसमे यदि नम्रता हो तो वह बनावटी होती है, और इसीलिए वह मनुष्य मे बड़प्पन का ही ख्याल पैदा करती है। उसकी नम्रता प्रतिष्ठा और महत्ता के लिए ही होती है। सच्चे जीवन की झाकी न होने से और गुणों की अनन्तता का तथा अपनी पामरता का भान न होने से पन्थ मे पडा मनुष्य अपनी लघुता का अनुभव कर ही नही सकता, केवल वह लघुता का दिखावा करता है। धर्म मे सत्यगामिनी दृष्टि होने से उसमे सभी दिशाओं से देखने
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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