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________________ १८४ जैनधर्म का प्राण दिशावाले एक-एक कोने पर खडे रहकर किया जानेवाला उस मकान का अवलोकन पूर्ण तो नही होता, पर वह अयथार्थ भी नही। जुदे-जुदे सम्भवित सभी कोनो पर खडे रहकर किये जानेवाले सभी सम्भवित अवलोकनो का सारसमुच्चय ही उस मकान का पूरा अवलोकन है । प्रत्येक कोणसम्भवी प्रत्येक अवलोकन उस पूर्ण अवलोकन का अनिवार्य अङ्ग है । वैसे ही किसी एक वस्तु या समग्र विश्व का तात्त्विक चिन्तन-दर्शन भी अनेक अपेक्षाओं से निप्पन्न होता है। मन की सहज रचना, उस पर पडनेवाले आगन्तुक सस्कार और चिन्त्य वस्तु का स्वरूप इत्यादि के सम्मेलन से ही अपेक्षा बनती है। ऐसी अपेक्षाएँ अनेक होती है, जिनका आश्रय लेकर वस्तु का विचार किया जाता है। विचार को सहारा देने के कारण या विचार-स्रोत के उद्गम का आधार बनने के कारण वे ही अपेक्षाएँ दृष्टि-कोण या दृष्टि-बिन्दु भी कही जाती है। सम्भवित सभी अपेक्षाओ से--चाहे वे विरुद्ध ही क्यो न दिखाई देती हो—किये जानेवाले चिन्तन व दर्शनो का सारसमुच्चय ही उस विषय का पूर्ण अनेकान्त दर्शन है। प्रत्येक अपेक्षासम्भवी दर्शन उस पूर्ण दर्शन का एक-एक अङ्ग है, जो परस्पर विरुद्ध होकर भी पूर्ण दर्शन मे समन्वय पाने के कारण वस्तुत अविरुद्ध ही है। सात नयों का कार्यक्षेत्र जब किसी की मनोवृत्ति विश्व के अन्तर्गत सभी भेदो को-चाहे वे गुण, धर्म या स्वरूपकृत हो या व्यक्तित्वकृत हो-भुलाकर अर्थात् उनकी ओर झके बिना ही एक मात्र अखण्डता का विचार करती है, तब उसे अखण्ड या एक ही विश्व का दर्शन होता है । अभेद की उस भूमिका पर से निष्पन्न होनेवाला 'सत्' शब्द के एकमात्र अखण्ड अर्थ का दर्शन ही सग्रह नय है। गुण-धर्मकृत या व्यक्तित्वकृत भेदो की ओर झुकनेवाली मनोवृत्ति से किया जानेवाला उसी विश्व का दर्शन व्यवहार नय कहलाता है, क्योकि उसमे लोकसिद्ध व्यवहारो की भूमिका रूप से भेदो का खास स्थान है। इस दर्शन के 'सत्' शब्द की अर्थमर्यादा अखण्डित न रह कर अनेक खण्डो मे विभाजित हो जाती है। वही भेदगामिनी मनोवृत्ति या अपेक्षा कालकृत भेदों की ओर झुककर सिर्फ वर्तमान को ही कार्यक्षम होने के कारण जब सत्
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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