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________________ जैनधर्म का प्राण १८३ या सग्रह होता था और जिसमें भेद मे अभेद दष्टि का प्राधान्य रहता था। तत्त्वज्ञान के सग्रह नय के अर्थ मे भी वही भाव है। व्यवहार चाहे राजकीय हो या सामाजिक, वह जुदे-जुदे व्यक्ति या दल के द्वारा ही सिद्ध होता है। तत्त्वज्ञान के व्यवहार नय मे भी भेद अर्थात् विभाजन का ही भाव मुख्य है। हम वैशाली मे पाए गए सिक्को से जानते है कि 'व्यावहारिक' और 'विनिश्चय महामात्य' की तरह 'सूत्रधार' भी एक पद था। मेरे ख्याल से सूत्रधार का काम वही होना चाहिए, जो जैन तत्त्वज्ञान के ऋजुसूत्र नय शब्द से लक्षित होता है। ऋजुसूत्रनय का अर्थ है-आगे पीछे की गली कूचे मे न जाकर केवल वर्तमान का ही विचार करना । सभव है, सूत्रधार का काम भी वैसा ही कुछ रहा हो, जो उपस्थित समस्याओ को तुरन्त निबटाए। हरेक समाज मे, सम्प्रदाय मे और राज्य मे भी प्रसगविशेप पर शब्द अर्थात् आज्ञा को ही प्राधान्य देना पड़ता है। जब अन्य प्रकार से मामला सुलझता न हो तब किसी एक का शब्द ही अन्तिम प्रमाण माना जाता है। शब्द के इस प्राधान्य का भाव अन्य रूप मे शब्दनय मे गर्भित है। बुद्ध ने खुद ही कहा है कि लिच्छवीगण पुराने रीतिरिवाजो अर्थात् रूढियो का आदर करते है। कोई भी समाज प्रचलित रूढियो का सर्वथा उन्मूलन करके नही जी सकता। समभिरूढनय मे रूढि के अनुसरण का भाव तात्त्विक दृष्टि से घटाया है। समाज, राज्य और धर्म की व्यवहारगत और स्थूल विचारसरणी या व्यवस्था कुछ भी क्यो न हो, पर उसमे सत्य को पारमार्थिक दृष्टि न हो तो वह न जी सकती है, न प्रगति कर सकती है। एवम्भूतनय उसी पारमार्थिक दृष्टि का सूचक है जो तथागत के 'तथा' शब्द मे या पिछले महायान के 'तथता' में निहित है। जैन परम्परा में भी 'तहत्ति' शब्द उसी युग से आज तक प्रचलित है, जो इतना ही मूचित करता है कि सत्य जैसा है वैसा हम स्वीकार करते है। (द० औ० चि० ख० १, पृ० ५८-६०) 1 अपेक्षाएँ और अनेकान्त मकान किसी एक कोने मे पूरा नही होता। उसके अनेक कोने भी किसी एक ही दिशा मे नही होते। पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण आदि परस्पर विरुद्ध
SR No.010350
Book TitleJain Dharm ka Pran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania, Ratilal D Desai
PublisherSasta Sahitya Mandal Delhi
Publication Year1965
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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